पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/६२

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राष्ट्रभाषा का निर्णय कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी कैंप, बाजार या लश्कर में बनी और उसका प्रचार मुगल-सामंतों ने किया। . उनका कहना है कि चह लश्कर दिल्ली में जमा था। हिंदोस्तानी दिल्ली में बनी । ठीक है। खुद दिल्ली की 'देहलवी' तो विलायत चली गई और उसकी जगह मिली मेरठी को। मेरठी. का जादू तो देखिए । दिल्ली के बाजार में जाकर किस छू मंतर ले समस्त हिंदोस्तान की हिंदोस्तानी बन गई और दिल्ली को छोड़ फिर मेरठ में आ जमी तथा 'देहलवी' को खासी 'बांगरू बना दिया । ग्रियर्सन साहब की त्रुटियों तथा उनके 'सर्वे' के दोषों को दिखाना हमें इष्ट नहीं है। हमें तो साफ साफ यह बता देना है और विवाद केवल शब्दों तक ही सीमित रहता तो कभी भी हिंदी- उडू ,द्र न छिड़ता। उर्दू के लेाग कितने शब्दों को बाजारी लश्करी या हिंदुस्तानी समझते हैं, तनिक उनसे पूछ तो देखिए । श्राप को स्वयं सूझ जायगा कि आप किस भ्रम के शिकार बनाए जा रहे हैं और बहुत दिनों से किस तरह शान के साथ निबुद्धि बनते आ रहे हैं। यदि आप सचमुच उर्दू को समझना चाहते हैं तो हैदरा- बाद के उर्दू प्रेम पर ध्यान दें और देखें कि किस प्रकार आज भी, इस बीसवीं सदी में भी, जनता की वाणी अरबी बनाई जा रही है और उसके हित के लिये सीवे अरबी से शब्द लिए ही नहीं जाते बल्कि ऐसे अरबी शब्द बनाए भी जाते हैं जिनका पता बेचारे अरबों और अरबी कोशकारों को भी नहीं है। अाज उर्दू के लिये देहली और लखनऊ नहीं बल्कि हैदराबाद सती हो रहा है ।