पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/३३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा का प्रश्नं राजभाषा न होकर केवल उदीच्यों की देशभाषा रह गई। नाटकों में उसे स्थान तक न मिला । 'मिलता भी कैसे ! राजवर्ग की भाषा संस्कृत नियत थी और उदीच्यों को रण-क्षेत्र के रंगमंच पर अपना सच्चा अभिनय दिखाना था। दिखावे के रूपक से उन्हें कव शांति मिल सकती थी।' उनके भाग्य में तो दूसरा ही दृश्य बदा था। एक 'बृहत्कथा' ने पैशाची को इतना महत्व दे दिया कि काव्य-भोपा अथवा वाङ्मय में उसकी चर्चा नित्य होती रही। भाषाचतुष्टय एवं षड्भाषाओं में उसे भी स्थान मिला। लक्ष्मी- धर ने अपनी 'षड्भाषा-चंद्रिका' में उसे एक से दो कर दिया । पैशाची के साथ चूलिका पैशाची को भी अलग गिन लिया । परंतु कतिपय को छोड़ अन्य आचार्यों ने उनका साथ न दिया । उन्होंने पैशाची तथा चूलिकापैशाची को एक ही कहा और संस्कृत को षड्भाषा के भीतर ही गिना। लक्ष्मीधर ने वस्तुतः तद्भवा. 'षडुविधा प्राकृती' का विचार किया है, न कि 'पड्भाषा' का । उनका स्पष्ट कथन है :-- "षड्विधा सा प्राकृती च शौरसेनी च मागधी । पैशाची चूलिकापैशाच्यपद्मशः इति क्रमात् ।' (पडभाषाचंद्रिका १९२६) तत्समा का विवेचन इसलिये नहीं किया कि वह संस्कृत के मार्ग पर चलती है और उसके व्याकरण भी अनेक हैं। हाँ, तो प्रतिष्ठित षड्भाषाएँ हैं