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राष्ट्रभाषा की परंपरा

'शिष्ट भाषा तो व्यवस्थित हो गई पर चलित भापा उनके अनुशासन से निकल भागी। वह शासकों के अभाव में आ गई। विदेशियों ने संस्कृतभूमि उदीच्य को अपनी गढ़ी बना ली और वरावर उसी में जमते रहे। उनका जमाव इतना सघन.. हो गया कि भरत मुनि को अपने नाट्यशास्त्र में उनकी भाषा का विधान करना पड़ा। उदीच्यों की भाषा वाहीका वन गई। . वाहीका वाहीकों की देशभाषा थी। उदीच्यों की देशभाषा चह हो नहीं सकती थी। · उदीच्यों और वाहीकों के घुल मिल जाने से उनकी भाषा भी शुद्ध न रहकर संकर हो गई। आगे चलकर जब शकादिकों के शासन ने उदीच्यों से आगे बढ़कर प्रतीच्यों और मध्यों को भी दबा लिया और उनके बीच उन्हें पिशाच के रूप में ख्यात कर दिया. तब उनकी मिली-जुली संकर भाषा का नाम पैशाची चल निकला ! पैशाची उदीच्यों की देशभाषा ठहरी । अन्यत्र उसे राजभापा की प्रतिष्ठा मिली। देश में दूर दूर तक उसकी तूती बोलने लगी। उसमें भी काव्य- रचना होने लगी। शकादिकों की आँखें खुली हुई थीं। उन पर किसी आस- मानी चश्मे का परदा न था। किसी भी साधु संस्कृति को अपना लेना उनका धर्म था। निदान उक्त जातियों ने संस्कृत तथा भारतीय संस्कृति को ग्रहण कर अपने हिंदुत्व का परिचय दिया और शासक के रूप में भारत के भाग्यविधाता वने रहे। उनके ब्रह्मण्य वन जाने तथा संस्कृत या स्थानीय प्राकृतों को अपना लेने से पैशाची का प्रभुत्व जाता रहा। वह कहीं की