पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/२३

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भाषा का प्रश्न पर विचार करें तो भी किसी प्रकार यह सिद्ध नहीं हो सकता कि 'अदमागहा' या कोई अन्य प्राकृत भाषा ही उक्त प्रकृति है। सच वात तो यह है कि जैनों के आदि आचार्य ऋपभदेव की वाणीः 'अद्धमागहा' न थी। वह महावीर स्वामी की 'पद्ध- मागहा' से भिन्न 'ब्राह्मी' या ब्रह्मावतं देश की वाणी थी। उसी का प्रचार ऋपभदेव ने किया था। वही 'जैनी वाणी' की भी. प्रकृति थी। सांप्रदायिकों ने जहाँ मागधी और अर्द्धमागधी पर जोर दिया वहाँ वैयाकरणों ने महाराष्ट्री को सराहा। कुछ की तो धारणा ही यह हो गई कि महाराष्ट्री ही वास्तव में मूल प्राकृत है । श्रीराम शर्मा ने स्पष्ट कह दिया कि महाराष्ट्री ही हेतुभूत भापा' है :- "सर्वासु भापास्विंह हेतुभूतां भाषां महाराष्ट्रमवा पुरस्तात् । निरूपयिष्यामि यथोपदेशं श्रीरामशर्माहमिमा प्रयत्नात् ।।" (हि० वि० को०, भा० १४ पृ० ६७५) महाराष्ट्री के 'महा' शब्द के जोर पर कुछ लोगों ने महाराष्ट्री को व्यापक राष्ट्रभाषा मान लिया है और अपनी प्रतिज्ञा को पुष्ट करने के लिये वैयाकरणों का प्रमाण दिया है। किंतु परितः परिशीलन से पता चलता है कि व्याकरण में महाराष्ट्री की प्रधा- नता का कारण कुछ और ही है। 'प्राकृत-प्रकाश में, जिन प्राकृतों का. विवेचन किया गया है. उनमें महाराष्ट्री. मुख्य है। वररुचि ने महाराष्ट्री का निरूपण कर शेष प्राकृतों का परिचय उसी के आधार पर दे दिया है। किंतु महाराष्ट्री को किसी की प्रकृति नहीं कहा है। प्रत्युत पैशाची तथा मागधी की प्रकृति