पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१९२

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उदू' की हिंदुस्तानी "उसी तरह तीन दिन रात साफ गुजर गए । मलिकः के मुंह में हुक खोल भी उड़कर न गई। वह फूल-सा बदन सूखकर कोटा हो गया औह वह रंग जो कुदन सा दमकत्ता था हल्दी सा बन गया। मुँह में फेफड़ी बँध गई। आँखें पथरा गई। मगर एक दम अटक रहा था कि वह आता जाता था। जब तक. साँस तब तक पास!"-(वही पृ०५३)। निदान, वह दिन भी आ गया कि "जाते जाते अचिंत एक दरिया कि जिसके देखने से कलेजाः पानी हो रहा था, कुछ थल बेड़ा न पाया. इलाही अब इस समुंदर से क्योंकर पार उतारें। एक दम इसी सोच में खड़े रहे। आखिर दिल में लहर आई कि मलिकः को यहीं बिठाकर मैं तलाश में नाव-नबाड़ी के जाऊँ। जब तलक असवाब गुजारे का हाथ आवे तब तलक वह नाजनी भी आराम पाये। मैंने कहा , मलिकः अगर हुक्म हो तो घाट-पाट इस दरिया का देव ।' फरमाने लगी मैं बहुत थक गई हूँ और भूकी प्यासी हो रही है। जरा दम ले लूँ। जब तई तुम पार चलने की कुछ तनवीर करो। उस जगह एक दरख्त पीपल का था। बड़ा छत्र बाँधे हुए कि अगर हजार सवार आएँ तो धूप-मेह में. उनके तले धारास पाएँ।-( वहीं ० ३७)। कुछ भी करो, होनहार होकर ही रहता है। आखिरकार "बोड़ी ने भी जल्दी कर कर अपने नई मलिकः समेत मेरे पीछे दरिया में गिराया और पैरने लगी। मलिक ने घबराकर बाग ग्वीची। वह मुंह की नरम थी। उलट गई। मलिकः गोतः