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१८६ साषा का प्रश्न • "अगरच कलंक का टीका मेरे माथे पर लगा, पर ऐसा काम नहीं किया जिसमें माँ-बाप के नाम को ऐच. लगे। अब यह बड़ा दुख है कि वे दोनों बेड्या मेरे हाथ से बच जावें और 'आपस में रंगरलियाँ मनावें और मैं उनके हाथों से यह कुछ 'दुख देखू !---( वहीं पृ. ३६)। कलंक का टीका क्यों लगा? अपने कर्मों से नहीं, वल्कि 'कर्म की रेखा' के कारण। किस प्रकार ? उसे भी जान लीजिए-- "सो तूने देखा। मैं किसू का बुरा नहीं चाहती थी लेकिन यह रत्नरावियाँ किस्मत में लिखी थीं। टलती नहीं करम की रेखा। इन आँखों के सवव यह कुछ देखा !"..-(वही पृ०.३४) । आँखों ने क्या कर दिखाया, कुछ इसका भी पता है ? चेचारी की जो गति हुई वह यह है- "वह लड़की अपनी हमजोलियों में बैठी थी और खुशी से गुड़िया का व्याह रचाया था। और ढोलक पखावज लिए हुए रतजगे की तैयारी कर रही थी और कड़ाही चढ़ाकर गुलगुले और रहम तलती और बना रही थी कि एकबारगी उसकी माँ रोती-पीटती सर खुले पाँव नगे वेटी के घर में गई और दो हत्थड़ उस लड़की के सिर पर मारी और कहने लगी 'काश कि तेरे बदले खुदा अधा बेटा देता तो मेरा कलेजा ठंडा होता ।"..- (वही पृ० ६६)। इतना होने पर भी चैन न मिला । उसको और भी भयानक कष्टों का सामना करना पड़ा। परिणाम यह हुआ कि-