पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१६०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गासाद तासी और हिंदी "इस वक्त हिंदी की हैसियत भी एक बोली की-सी रह गई है, जो हर गाँव में अलग-अलग तरीके से बोली जाती है। ( यही पृ० १०५.४ ) कारण प्रत्यक्ष है। गासी द तासी का पहला कहना बाबू शिवप्रसाद के उक्त आंदोलन से पहले का है, और दूसरा ठीक उसके बाद का। गासा देताती की दृष्टि में अब परंपरागत-संपन्न हिंदी भापा बोली के रूप में रह गई और नागरी लिपि भी फूहड़, भद्दी और व्यर्थ दिखाई पड़ने लगी। उनके विचार में- "अब रहा रस्म रत्नत का सवाल, तो इस बावत में भी उर्दू रस्म खत को तरजीह हासिल है, इसलिये कि उसके ज़रिए से संस्कृत के उन तमाम अल्फाज़ का पूरी तरह इजहार किया जा सकता है, जो हिंदी में मुस्तमल है।" इतना ही नहीं, बल्कि "संस्कृत में अलहदः अलहदः चार आते हैं, उनके तल कुज में कोई फर्क नहीं होता और उन सभों के इजहार के लिये अरवी 'न' काझी है।" (वही पृ० ७७२।) गाली द तासी संस्कृत से सर्वथा अनभिज्ञ और अरबी-- फारसी के पंडित थे। इसलिये इस तरह की ऊटपटांग बातें लिखकर अपनी अल्पज्ञता का परिचय दे सकते हैं और जानकारों की मंडली में एक विशेष रस का संचार भी कर सकते हैं। परंतु जब उनका यह फरमान निकलता है कि-