पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१५३

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सारा का प्रश्न १४८ जाति की तल्लीनता थी। शासन से उसका अटूट संबंध था। कम्पनी के नौकरों के लिये हिंदुस्तानी का जानना अनिवार्य था। किंतु गासी द तासी की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न थी। वह शासक नहीं, जिज्ञासु थे। उनकी तल्लीनता थी निष्टा और प्रेम के रूप में। हिंदुस्तानी से उन्हें प्रेम हो गया था। अरवी, तुर्की तथा फारसी के अध्ययन से जब उनका पेट न भरा तब उन्होंने हिंदुस्तानी को मुँह लगाया और जी-जान से उस पर टूट पड़े जीवन भर उसके पठन-पाठन में मग्न रहे बहुतों की भाँति गासी द तासी का भी यह बढ़ दावा था कि हिंदी-उर्दू-विवाद की गहरी छानबीन और सच्ची समालोचना सचमुच "फिरंगो' ही कर सकते हैं। निदान, अपने व्याख्यानों में उन्होंने बारबार इसकी घोषणा की है कि यूरोप के लोग ही हिंदी-उर्दू-विवाद की समस्या को यथार्थ रूप में हल कर सकते हैं । हमारे लिये सचमुच यह बड़े सौभाग्य की बात होती: यदि हमारे. उक्त विदेशी बंधु हमारे सांप्रदायिक भावों से अलग रह, स्वच्छ हृदय से हमारी भाषा की परख करते और उसके स्वभाव के अनुकूल उसके प्रवाह को व्यवस्थित कर हमारे साहित्य को निर्मल तथा गतिशील बनाते । किंतु खेद की बात तो यह है कि हमारे इन निष्पक्ष बंधुओं ने एक ओर तो हमारी धार्मिक भावनाओं पर वज्रपात किया और दूसरी ओर एक. ऐसी आग लगा दी, जो उपचार करने से प्रतिदिन और भी बढ़ती क्या, भभकती ही जा रही है। क्या ही अच्छा हो; यदि आज भी हिंदुस्तानी चेत जाये और उन सभी कारणों पर पूरा-पूरा विचार