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भाषा का प्रश्न १०८ आपस में लेन-देन, सौदासुल्फ, सवाल-जवाब करते-करते एक जवान उर्दू की मुकर्रर हुई। जब हजरत शाहजहाँ साहवे केरान किला मुबारक और जामा मसजिद और शहरपनाह. तामीर करसाया....... तब बादशाह ने खुश होकर जश्न फ़रमाया और शहर को अपना दारूलिखलाफ़त बनाया। तब से शाह- जहानाबाद मशहूर हुआ ...और वहाँ के शहर को उर्दू एमुअल्ला. खिताब दिया। अमीर तैमूर के अहद से मुहम्मदशाह की बादशाहत तक, बल्कि अहमदशाह और आलमगीर सानी के वक्त तक, पीढ़ी व पीढ़ी सल्तनत एकसाँ चली आई। निदान ज़बान उर्दू की मॅजते मॅजते ऐसी मँजी कि किसी शहर की बोली उससे टक्कर नहीं खाती।" मीर अमन की इस 'हकीकत' पर बहस करने की जरूरत नहीं। यह उनकी खोज नहीं, बुजुर्गों की कहानी है। इसका मतलब इतना जान लीजिए कि उस समय 'उर्दू की ज़बान' की रामकहानी क्या थी और किस रूप में देहली के लोग उसे समझते थे। हम जिस बात पर जोर देना चाहते हैं वह कहानी नहीं 'उर्दू की जबान' का प्रयोग है। 'उर्दू की जवान' "उर्दू जबान' से जुदा है या नहीं ? यदि अलग है. तो मीर अमन का यह कथन 'उर्दू की हकीकत पर नहीं लागू हो सकता। उसकी असलियत का पता लगाना चाहिए। सुनिए सैयद इंशा अल्लाह क्या कहते हैं। १-- दरिया-ए-लताफ़त, अजुमन तरक्की उर्दू, सन् १६१६ ई. प्रारंभ पृ० १,२।.. १