पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१००

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वली की हिंदी तुम्हीं मिलने में गर अपने सुहागिन ना करोगे मुक! तो जाड़ा गनगरी का और करीलाधार करना क्या !! तो कोई जाल पिरित की भाग में तनमन का यों अपने। 'यलो' संगम बिना ऐने की फिर आधार करना क्या ।। -कुल्लियात ७८ अप्रस्तुत विधान अथवा अलंकारों की योजना में भी वली ने अपने हिंदीपन का पूरा परिचय दिया है। देखिए 'मुख के तिल के विषय में कहते हैं- नया देवल में पुतली है व या कावा में है असवद । हिरन का है या नाफः या कवल भीतर भंवर दिसता ।। काबा के सामने आ जाने से नमाज भी जरूरी है। में भी हिंदी लफ्जों की पाबंदी देखिए और गौर कीजिए कि दीन का जवान से क्या संबंध है। वली फरमाते है- व मुख तरा है ज्यों मसजिद मवाँ हैं ज्यों मेहराब । अँखों से जाके मैं वहाँ इश्क की नमाज किया। पाठक विस्मृत न हों, वली के यहाँ कबीर का मन का मनका' नमाज याद करने के लिया हाथ में मन का मनका । दिल ऊपर बोझ पड़ी मनका फिरना मुश्किल ।। वली राजपूतों की बहादुरी के कायल हैं। लड़नेवाली घाखों के लिये फरमाते हैं--- दिले काजल से तुझ अखियाँ को यो धन । कि बरछी को पकड़ निकला हे रजपूत ।। .