पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/६७

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भाषा-विज्ञान है। इसी प्रकार नमक के लिये 'रामरस' और पीली मिट्टी के लिये 'रामरज' आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं। शिक्षा और शिष्टता एक ओर तो भाषा में निभेद उत्पन्न करती है और दूसरी ओर राष्ट्रीय भावों का उदय करके एकता स्थापित करने में सहायक होती है। एक शिक्षित पुरुप 'व्यक्तिगत भाव' 'निसर्गसिद्ध अधिकार' 'प्राकृतिक सौंदर्य भाव- विवेचन' 'साम्यवाद' आदि शब्दों का भाव जितनी सुगमता से समझ सकेगा, उतनी सुगमता से दुग्नरे लोग नहीं समझ सकेंगे । परंतु इन विभेदों का विवेचन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भिन्न भिन्न बोलियों का स्रोत एक मूल भापा होता है। उसी से भिन्न भिन्न बोलियाँ या देशभापाएँ क्रमशः परिवर्तित होकर निकलती हैं। हम का भाव प्रकट करने के लिये गुजरातो में 'अमे', मराठी में 'आह्मी', बँगला में 'आमि' शब्द प्रयुक्त होते हैं । खोज करने पर इसका पता चल जाता है कि ये लव संस्कृत के 'अस्मद्' शब्द से निकले हैं। इसी प्रकार बहिन के लिये मराठी में 'बहीण' गुजराती में 'बेहेण' पंजाबी में 'भैरण' शब्द चलते हैं, पर नव निकले हैं संस्कृत के 'भगिनी' शब्द से। अतएव यह प्रकट होता है कि इस प्रत्यय विभेदता में भी अगोचर रूप से एकता छिपी पड़ी है; अर्थात् भारतवर्ष की भिन्न भिन्न भाषाओं के बोलनेवाले यद्यपि एक दूसरे से इस समय सर्वथा अलग- अलग जान पड़ते हैं, पर वास्तव में वे एक ही मूल वा स्रोत से निकले है । यह मूल भाषा संस्कृत है, और वह जाति जिससे इस समय भारतवर्ष में इतनी अधिक जातियाँ और उपजातियाँ हो गई हैं 'आर्य' जाति है । परंतु यहीं पर, यह अनुसंधान समाप्त नहीं होता । जब हम कई भाषायों की परस्पर नुलना करते है तब हम उनमें बहुत सी समानताएँ पाने हैं। कुछ भाषाओं के शब्द भाण्डार, वंशानुमार भागों वाक्यान्यव, रूप आदि में इतना लाम्य रहता रावगीकामा है कि उसकी सजातीयता अर्थात् उन्हें किसी एक प्राचीन भापा की संतान मान लेने में कोई मंकोच नहीं होता । पर इस प्रकार का संबंध स्थापित करने में बहुत