पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/६४

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भाषाओं का वर्गीकरण ५३ अस्तु; इस वर्ग की भाषा का प्रधान लक्षण प्रकृति और प्रत्यय का अभेद है। ऐसी रचना में अपवाद और व्यत्यय की भी प्रधानता रहती है। इसी कारण इनमें विविधता और जटिलता भी अधिक रहती है। फलतः इसका व्याकरण भी अधिक विशाल और विस्तृत होता है। इस वर्ग के दो उपविभाग होते हैं-अंतमुख-विभक्ति-प्रधान और बहिमुख-विभक्ति- धान । सेमेटिक और हेमेटिक परिवार की भाषाएँ अंतर्मुख-विभक्ति-प्रधान होती हैं और भारोपीय परिवार की बहिर्मुख विभक्ति-प्रधान । अंतर्मुख-विभक्ति-संपन्न भाषा में पूर्व-विभक्तियाँ, अंत:-विशक्तियाँ और पर-विभक्तियाँ होती तो हैं, पर वास्तव में व्याकर- णिक संबंध शब्द के भीतर होनेवाले स्वर-परिवर्तन से ही सूचित होता है। जैसे 'कल' अरवी की एक धातु है, उससे कतल (उसने मारा), 'कुतिल (वह मारा गया), 'यक्तुलु' (वह भारता है), कातिल (मारनेवाला) 'किल्ल' (शत्रु), 'कितल' (प्रहार, चोट) आदि अनेक रूप स्वरों के परिवर्तन करने से ही बन जाते हैं। व्यंजन वही के वही रहते हैं। सेमेटिक परिवार के अतिरिक्त हेमेटिक परिवार में भी यही लक्षण बहुत कुछ मिलते हैं । इन भाषाओं में भी सहित से व्यवहत होने की स्पष्ट प्रवृत्ति देखी जाती है। दूसरे उपविभाग में सुप्रसिद्ध भारोपीय परिवार आता है । यहाँ विभक्तियाँ बहिर्मुख और प्रायः परिवर्तिनी होती हैं। इन भाषाओं की धातुएँ न तो त्रैवर्णिक ही होती हैं और न व्याकरणिक संबंध ही अंतरंग स्वर-भेद द्वारा प्रकट होता है। इसी से इनमें पर-विभक्तियों का अधिक व्यवहार होता है ! पर संहित से व्यवहत की प्रवृत्ति इसमें भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। इस परिवार की एक विशेषता अक्षरावस्थान भी है। इस परिवार की विभक्त्तियों और प्रत्ययों की संपत्ति सबसे अधिक है। संस्कृत, लैटिन, श्रीक आदि विभक्ति-प्रधान भाषाओं के उदाहरण यहाँ गिनाने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि भारोपीय परिवार के वर्णन में इनके अनेक उदाहरण मिलेंगे। परन्तु इतना अवश्य ध्यान में रखना