पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/५८

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भाषाओं का वर्गीकरण तीसरे प्रकार के वाक्यों में प्रत्ययों की प्रधानता रहती है । व्याकरण के कारक, लिंग, वचन, काल आदि के सभी भेद प्रत्ययों द्वारा सूचित किये जाते हैं। ऐसे वाक्यों के शब्द न तो (३) प्रत्यय-प्रधान वाक्य बिल्कुल समस्त ही होते हैं और न विल्कुल पृथक पृथक । शब्द सभी पृथक पृथक् रहते हैं । पर कुछ प्रत्यय उनमें लगे रहते हैं, और वे ही उनको दूसरे शब्दों से तथा सम्पूर्ण वाक्य से जोड़ते हैं । ऐसे वाक्य में एक शब्द से अनेक प्रत्यय लगाकर अनेक भिन्न अर्थ निकाले जाते हैं । उदाहरणार्थ वां परिवार की काफिर भाषा के 'उमुंतु वेतु अोमुचिल उयवोनकल' का अर्थ होता है 'हमारा आदमी देखने में भला है। इसी का बहुवचन 'अंवतु बेतु अवचिल वयवोनकल' होता है। यहाँ न्तु (आदमी ), तु (हमारा ) चिल (प्रियदर्शन ) और यवोनकल (देख पड़ता है) शब्दों की प्रकृतियाँ हैं। इनको तनिक भी विकृत न करते हुए भी प्रत्यय अपना कारक और वचन का भेट दिखला रहे है। इसी प्रकार तुर्की भाषा में कारक, वचन आदि प्रत्येक के लिये पृथक पृथक् प्रत्यय है। जैसे पध' का अर्थ घर होता है । बहुवचन प्रत्यय जोड़ देने पर 'ऐव-लेर' अनक घर वन जाता है । उसी में 'मेरा' का वाचक प्रत्यय जोड़ देने से एवलेरिम' (मेरे घर ) बन जाता है । इस शब्द की कारक-रचना देख लेने से प्रत्यय-प्रधानता स्पष्ट झलक जाती है। चौथे प्रकार के वाक्य ऐसे होते है जिनमें शब्द का परस्पर संबंध-उनका कारक वचन आदि का व्याकरणिक संबंध-विभक्तियों द्वारा प्रकट किया जाता है। विभक्तियाँ परतंत्र (४) विभक्ति-प्रधान वाक्य और विकृत प्रत्यय कही जा सकती हैं । विभक्ति प्रधान वाक्य में प्रत्यय संबंध का ज्ञान कराते हैं, पर वे स्वयं अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। इसी से उनके इस विकृत रूप को विभक्ति कहना अधिक अच्छा होता है । ऐसी विभक्ति-प्रधान वाक्य-रचना संस्कृत अरवी में प्रचुर मात्रा में मिलती है। जैसे संस्कृत में 'अहं प्रामं गतवान्