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३६ भाषा-विज्ञान आदिम मनुष्य पीने में किस प्रकार भीतर साँस खींचता था । इसी से तो 'प' और 'ब' के समान ओष्ठ य वर्ण इस क्रिया के ध्वनि-संकेत हो गए । अरवी भाषा की 'शरव' (पीना) धातु में भी प्रतीकवाद ही काम करता देख पड़ता है। उसी से हिंदी का शरबत' और अँगरेजी का Sherbet निकला है। इसी प्रकार यह भी कल्पना होती है कि किसी समय हस्तादि से दाँत, अोष्ठ, आँख आदि की ओर संकेत करने के साथ ही ध्यान आकषित करने के लिये आदि-मानव किसी ध्वनि का उच्चारण करता होगा, पर धीरे धीरे वह ध्वनि ही प्रधान बन गई, जैसे दाँत की ओर संकेत करता हुआ मनुष्य अअ, आ, अत अथवा आत् जैसी विवृत ध्वनि का उच्चारण करता होगा, इसी से वह ध्वनि-संकेत 'अत्' अथवा 'अद्' के रूप में 'दाँत' और 'दाँत से खाना-आदि कइ अर्थों के लिये उपयुक्त होने लगा। संस्कृत के अद् और दंत लैटिन के 'edere' (eat) और dens' (tooth) आदि शब्द इसी प्रकार बन गए। प्रत्येक सर्वनाम भी इसी प्रकार बने होंगे। अँगरेजी के दी (the दैट (that), ग्रीक के टो (to), अँगरेजी के thou, लैटिन के तू और हिंदी के तू आदि निर्देशवाचक सर्वनामों से ऐसा मालूम होता है कि अँगुली से मध्यम पुरुष की ओर संकेत करते हुए ऐसी संवेदनात्मक ध्वनि जिह्वा से निकल पड़ती होगी। इसी प्रकार 'यह' 'वह' के लिये कुछ भाषाओं में 'इ' और 'उ' से निर्देश किया जाता है। दिस' और 'दैट' 'इदम्' और 'अदस्' जैसे सभ्य भाषाओं के शब्दों में भी सामीप्य और दूरी का भाव प्रकट करने के लिये स्वर-भेद देख पड़ता है। इस प्रकार निर्देश के कारण स्वरों का बदलना आज भी कई असभ्य और सभ्य जातियों में देख पड़ता है। इसी के आधार पर अक्षरावस्थान (vowel- gradation ) का अर्थ भी समझ में आ सकता है । अँगरेजी Sing, Sang और Sung में अक्षर (=स्वर) अर्थ-भेद के कारण परिवर्तित हो जाता है । इसे अक्षरावस्थान कहते हैं और इसका कारण कई विद्वान् प्रतीकवाद को ही समझते हैं। जैस्पर्सन ने इस बात का बड़ा रोचक वर्णन किया है कि किस प्रकार