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भाषा और भापण ३३ जाना स्वाभाविक और विश्राम देनेवाला होता है । इसी प्रकार स्वर-तंत्रियों में भी कंपन होने लगता है। जब आदि काल में लोग मिलकर कुछ काम करते थे तो स्वभावत: उस यो-डे-हो-बाद काम का किसी ध्वनि अथवा किन्हीं ध्वनियों के साथ संसर्ग हो जाता था। प्रायः वही ध्वनि उस क्रिया अथवा कार्य का वाचक हो जाती थी। मैक्समूलर ने एक चौथे मत का प्रचार किया था। उसके अनुसार शह और अर्थ में एक स्वाभाविक संबंध होता है। समस्त प्रकृति में यह नियम पाया जाता है कि चोट लगने पर डिंग-डेंग-वाद प्रत्येक वस्तु ध्वनि करती है । प्रत्येक पदार्थ में अपनी अनोखी आवाज (झंकार) होती है । आदि काल में मनुष्य में भी इसी प्रकार की एक स्वाभाविक विभाविका शक्ति थी, जो बाह्य अनुभवों के लिये वाचक शब्द बनाया करती थी। मनुष्य उसके लिये आप से आप ध्वनि-संकेत अर्थात् शब्द बन जाते थे। जब मनुष्य की भाषा विकसित हो तब उसकी वह सहज शक्ति नष्ट हो गई। विचार करने पर यह मत इतना सदोष हुआ कि स्वयं मैक्समूलर ने पीछे से उसका त्याग कर दिया था। मैक्समूलर के इस वाद की चर्चा अब मनोरंजन के लिये ही की जाती है। पर इसके पहले के तीन मत अंशत: सत्य हैं, यद्यपि उनमें सबसे बड़ा दोष यह है कि एक सिद्धांत एक ही विकासवाद का वात को अति प्रधान मान बैठता है। इससे समन्वित रूप विचारशील विद्वान् और 'स्वीट' जैसे वैयाकरण इन तीनों का समन्वय करना अच्छा समझते हैं। वे भाषा के विकासवाद को तो मानते हैं, पर उन्हें इसकी चिंता नहीं होती कि मनुष्य द्वारा उच्चरित पहला शब्द 'भो भो' था अथवा 'पूह पृह् । विचारणीय बात केवल इतनी है कि मनुष्य के आदिम शब्द अव्यक्तानुकरण-मूलक भी थे, मनोभावाभिव्यंजक भी थे और साथ ही ऐसे भी अनेक शब्द वनते थे जो किसी क्रिया अथवा घटना के संकेत अथवा प्रतीक थे । ये देखता सुनता था, फा०३