पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३५१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३२२ भाषा-विज्ञान (२२) क-~-घोप, अल्पप्राण, कंठ्य, अनुनासिक स्पर्श-ध्वनि है । इसके उच्चारण में जिहामध्य कोमल तालु का स्पर्श करता है और यौया सहित कोमल तालु कुछ नीचे झुक आता है जिससे कुछ हवा नासिका-विवर में पहुँचकर गूंज उत्पन्न कर अनुनासिक देती है। इस प्रकार स्पर्श-ध्वनि अनुनासिक हो जाती है। शन्नों के बीच में कवर्ग के पहले हुः सुनाई पड़ता है। शब्दों के श्रादि या अंत में इसका व्यवहार नहीं होता। सर-सहित दुः का भी व्यवहार हिंदी में नहीं पाया जाता। 10--रंक, शंख. कंत्रा, भंगी। (२३) त्र--योष, अल्पप्राण, तालव्य, अनुनासिक धनि है। हिंदी में यह धनि होती ही नहीं और जिन संस्कृत शब्दों में वह लिखी जाती है उनमें भी उसका उच्चारण न के समान होता है जैसे–चञ्चल, अश्वन प्रादि का उच्चारण हिंदी में चन्चल, अन्पल की भाँति होता है। कहा जाता है कि ब्रज, अवधी श्रादि में न धनि पाई जाती है; पर खड़ी बोली के साहित्य में यह नहीं मिलती। (२१) रण-अल्पप्राण, घोप, मूर्धन्य अनुनासिक स्पर्श है। स्वरमहिन गा केवल तल्लम संस्कृत शब्दों में मिलता है और बह भी शों के नादि में नहीं। उमा-गुण, मग्गि, परिणाम । मंजन शब्दों में भी पर-सवर्ण 'ग' का उच्चारण 'म' के नमान होना । जैन-मं० पमित, कगर श्रादि पन्डित, कन्ट यादि ६. नमान उच्चग्नि होने । 'प्री स्वरों के पहले अवश्य हलंत 7 अनि सुन पानी, जैसे--कल्प, गाय, पुगय श्रादि। इनके कि जिन हिदी शब्दों में यह ध्वनि बनाई जाती है, उनमें 'न' योनि गुग परनी मे--कंटा, गंटा, भंटा, टंडा ।