पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३४५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३१६ भाषा-विज्ञान (१४) ए.--यह अर्धसंघृत दीर्घ अग्र स्वर है। इसका उच्चारण- स्थान प्रधान स्वर ए से कुछ नीचा है। उदा०-एक, अनेक, रहे । (१५) ए. यह अर्धसंवृत हस्व अग्र स्वर है। इसके उच्चारण में जिहान ए की अपेक्षा नीचा और मध्य की ओर रहता है। इसका भी व्यवहार विभाषाओं और बोलियों में ही होता है। उदा०-७०-अवधेस के द्वार सकार गई (कवितावली) अव० ओहि कर बेटवा । (१६) ए-नाद ए का यह जपित रूप है और कोई भेद नहीं है । यह ध्वनि भी साहित्यिक हिंदी में नहीं है, केवल बोलियों में मिलती है; जैस-अवधी कहे से। (१५) एँ—यह अर्धविकृत दीर्घ अग्र स्वर है । इसका स्थान मान स्वर में से कुछ ऊँचा है । श्रओं के समान भी ब्रज की बोली की विशेषता है । उदा०--ॉसो, के सो। (१८) --यह अधेविवृत हस्व अग्र स्वर है। यह दीर्घ में की अपेक्षा थोड़ा नीचा और भीतर की ओर झुका रहता है। उदा०--'सुत गोद के भूपति लै निकसे' में के | हिंदी संध्य क्षर ऐ भी शीन बोलने से हस्व समानाक्षर के समान सुन पड़ता है । (१९) श्र—यह अर्धविवृत स्वार्थ मिश्र स्वर है और हिंदी 'अ' से मिलता जुलता है । इसके उच्चारण में जीभ अपेक्षा थोड़ा और ऊपर रट जाती है। जय यह ध्वनि काकल से निकलती है तब काकल के ऊपर के गले और मुख में कोई निश्चित क्रिया नहीं होती; इससे इस अनिश्चित (Indeterminatc) अथवा उदासीन ( ncutral ) स्वर काहन है। इस पर कभी बल-प्रयोग नहीं होता 1 अँगरेजी में इसका मंन है। पंजाबी भाषा में यह ध्वनि बहुत शब्दों में सुन पढ़ती है। अमे--पं० २१म, बचाग (हिं- विचाम), नौकर। कुछ लोगों का मत है >