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३०८ भाषा-विज्ञान प्राए थे । वहाँ से एक दल फारस की ओर चला गया। उस दल की प्राचीन भाषा का नाम मीड़ी या मीरी मिलता है । इस भाषा की दो शाखाएँ हुई --एक के उदाहरण तो हमें पारसियों के आदिम धर्मग्रंथ अवेस्ता की भाषा में मिलते हैं और दूसरी के उदाहरण दारा के शिला- लेखों में हैं। दारा के शिलालेखों में जिस भाषा का प्रयोग हुआ है, उसे पुरानी ईरानी भी कहते हैं । इससे क्रमशः पह्नवी भाषा का विकास हुआ जिसमें सेसेनियन वंश के राजाओं के लेख तथा अवेस्ता का भाष्य लिखा मिलता है । इस पह्नवी से क्रमश: वर्तमान फारसी की उत्पत्ति हुई । इस प्रकार ईरानी भाषा के तीन रूप हुए—प्राचीन ईरानी या अवेस्ता की भापा, पह्नवी और फारसी। आर्यवंश की भाषाओं के तुलनात्मक भाषा-विज्ञान ने एक और बड़ा काम किया है। जब आर्यों के आदिम स्थान के विषय में खोज आदिम आर्यों की सभ्यता होने लगी और विद्वानों ने भिन्न भिन्न स्थानों को आर्यों का मूल निवासस्थान बतलाया तब स्वभावत: यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि वे किस प्रकार जीवन निर्वाह करते थे, उनकी चाल-ढाल, रहन-सहन कैसी थी; अर्थात् यह पता लगाया जाने लगा कि उनकी सभ्यता किस कोटि की थी। उनका कोई पुराना इतिहास तो था ही नहीं जिसके आधार पर इस जिज्ञासा की तृप्ति हो सकती । विद्वानों ने यह जानने का उद्योग किया कि आर्य- वंश की भिन्न भिन्न भाषाओं में किन किन पदार्थों आदि के लिये एक से शब्द हैं । क्रमश: इनका संग्रह किया गया और इनके आधार पर यह सिद्धांत स्थिर किया गया जब एक ही पदार्थ के सूचक एक ही प्रकार शब्द भिन्न भिन्न आर्य भाषाओं में हैं तब वह पदार्थ आदिम प्रायों को अवश्य विदित होगा । इस प्रकार उन श्रार्थों की सभ्यता का एक इतिहास प्रस्तुत किया गया । इस कार्य में पुरातत्व ने भी सहायता दी। पुरातत्ववेत्ताओं ने पुरानी वस्तुओं की खोज से जो प्राचीन इतिहास उपस्थित किया था, उसका भाषा-विज्ञान द्वारा उपलब्ध इतिहास से मिलान किया गया; और जब दोनों एक ही सिद्धांत पर पहुँचे, तब यह