पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३३६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रागैतिहासिक खोज ३०७ । उस रूप को 'पाली' नाम दिया गया है। पाली के अनंतर हमें साहित्यिक प्राकृत के दर्शन होते हैं। इसके चार मुख्य भेद माने गए हैं-महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और अर्धमागधी । इनमें से महाराष्ट्री सबसे प्रधान मानी गई है। महाराष्ट्री एक प्रकार से उस समय राष्ट्र भर की भाषा थी। इसलिये यहाँ राष्ट्र शब्द समस्त राष्ट्र का वोधक भी माना जा सकता है। शौरसेनी मध्यदेश की प्राकृत है और शूरसेन देश ( आधुनिक ब्रजमंडल ) में इसका प्रचार होने के कारण यह शौरसेनी कहलाई। मागधी का प्रचार मगध (आधुनिक विहार) में था। अर्धमागधी भागधी और शौरसेनी के बीच के प्रदेश की भाषा थी पर इसमें अन्य भाषाओं का भी मिश्रण था। शुद्ध मागधी न होने के कारण ही इसका नाम अर्धमागधी था। क्रमशः इन प्राकृतों ने भी संस्कृत की भाँति. साहित्यिक रूप धारण किया और बोलचाल की भाषा इनसे भिन्न हो चली । यह बोलचाल की भापा अब 'अपभ्रंश' नाम से अभिहित होने लगी। विद्वानों का अनुमान है कि भिन्न भिन्न प्रान्तों में भिन्न भिन्न प्रकार की अपभ्रंश बोली जाती थी। जब इस अपभ्रंश में भी काव्यों की रचना होने लगी, तब आधुनिक देशभाषाओं का विकास प्रारंभ हुआ। जो प्रमाण मिलते हैं, उनसे यही सिद्ध होता है कि ईसवी ग्यारहवीं शताब्दी सक अपभ्रंश भाषाओं में कविता होती थी। प्राकृत भाषा के अंतिम वैयाकरण हेमचंद्र ने, जो बारहवीं शताब्दी में हुए थे, अपने व्याकरण में अपभ्रंशों के नमूने दिए हैं। जान पड़ता है कि उसी समय से अथवा उससे कुछ पूर्व से अपभ्रंशों में से संयोगात्मकता जाती रही थी और वियोगात्मकता ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया था । इन्हीं अपभ्रंशों से आगे चलकर आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म और विकास हुआ। आर्य भाषाओं की पूर्वी शाखा की दूसरी प्रधान भाषा ईरानी है। हम पहले कह चुके हैं कि आर्यों की पूर्वी शाखा में प्रारंभ में कोई भेद नहीं था। बदख्याँ और खोकंद की ऊँची भूमि तक वे सायं साथ