पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३१९

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भाज-विज्ञान प्रचलित है किंतु इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि लेखन की अपेक्षा कंठस्थ करने की परिपाटी अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। स्वयं वूलर लिखता है कि यह अनुमान अकाट्य है कि वैदिक काल में भी लिखित ग्रंथों का उपयोग शिक्षा तथा अन्य कार्यों में हुआ करता था। बोधलिंग नामक विद्वान् का मत है कि साहित्य के प्रचार लिये नहीं किंतु नए ग्रंथा के प्रणयन के लिये लिपि का उपयोग किया जाता था। वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण और उपनिषद् ग्रंथ मिलकर बृहत् आकार धारण करते हैं, जो बिना लिपिबद्ध हुए केवल मौखिक आधार पर नहीं रह सकते थे। पद्य और गीत ही नहीं, गद्य अवतरणों कार. विना लिखे प्रचलन होना असंभव सा रहता है। ऐसी अवस्था में वैदिक गद्य, लेख रूप में अवश्य आया होगा। वैदिक छंदों की परि- ३. गणना की गई थी, यह कार्य भी लेखन सापेक्ष्य है। वेदों में लिंग और वचन आदि के भेदों का उल्लेख है, जिससे वैदिक व्याकरण का भी आभास मिलता है। व्याकरण का लिपिबद्ध होना अनिवार्य है। पारभाषिक शब्दो की चर्चा विना लिखित आधार के नहीं हो सकती ! वेदों में संख्याओं की भी यथेष्ट परिगणना है। यजुर्वेद संहिता में गणक का उल्लेख है जिसका अर्थ गणित करनेवाला ज्योतिपी होता निख्या और अंक है। उसमें दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्यद, समुद्र, मध्य, अन्त और परार्ध तक की संख्याएँ मानी गई हैं जो क्रमशः दस दस खर्व तक होती हैं। इन संख्याओं का ज्ञान लिखे-पढ़े व्यक्तियों को ही हो सकता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वैदिक धार्यों को लिखना पढ़ना आता था और वे अक्षरों से ही नहीं अंकों से भी संमत: परिचित थे। वैदिक-काल के पश्चात् बौद्ध-काल में तो लेखन कार्य व्यवस्थित झप से प्रचलित हो गया होगा। विनयपिटक में, जो महात्मा बुद्ध के