पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३१७

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1 २८८ भाषा-विज्ञान नुकीला होता है किंतु ब्राह्मी लिपि के अक्षर ठीक इसके विपरीत गुणवाले होते हैं। ५. दूसरी बात यह है कि उसने दोनो लिपियों की तुलना करते हुए मूल फिनिशियन अक्षरों को प्रत्येक प्रकार से उलटा पलटा है, उनके मूल रूप में नहीं रक्खा जब अनुकृति ही करनी थी तो अक्षरों का रूप बदलने की क्या आवश्यकता पड़ी थी। ५ तीसरी बात यह है कि बूलर केवल ब्राह्मी लिपि को ही नहीं खरोष्ठी को भी फिनिशियन का अनुकरण मानता है। ऐसी अवस्था में ब्राह्मी और खरोष्ठी के बीच जो समानता होनी चाहिए वह क्यों नहीं पाई जाती । अशोक के शिलालेखों में दोनों ही लिपियों का व्यवहार हुआ है किंतु दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। इन सब तकों के बाद जब हम यह देखते हैं कि ब्राह्मी अक्षरों की संख्या फिनिशियन या किसी भी सेमेटिक लिपि के अक्षरों की संख्या में कहीं अधिक है, और उनको सजाने की-क्रम- ब्राह्मी अक्षरों की बद्ध करने की—परिपाटी भी स्वतंत्र हैं, वे ध्वनि स्वतंत्रता पर आधारित हैं और वे अक्षर वर्णमूलक हैं चित्रमूलक नहीं । इस लिपि में मात्राएँ स्वतंत्र होती हैं और अक्षरों के साथ लगती हैं । मात्राओं के हस्व और दीर्घ आदि भेद भी होते हैं जो अन्य लिपियों में नहीं पाए जाते । तब आपसे आप यह प्रश्न होता है कि भारतीय जब अपने अक्षरों का इतना स्वतंत्र विकास कर सकते थे तो उन्हें कुछ थोड़े से विदेशी अक्षरों की अनुकृति करने में क्या लाभ दिखा था। वह यहि उत्तर भारत की सी लिपि वा मोर्स सारांश यह कि ब्राह्मी लिपि को विदेशी सिद्ध करनेवालों के तर्क सव तरह से अपूर्ण और संदिग्ध हैं तथा कहीं भी विश्वास नहीं उत्पन्न करते । यदि ऐसे तकों का आधार लिखा जाय तो संसार के किसी भी भूभाग में प्रचलित लिपि की अनुमति बताया जा सकता है, किंतु ऐसा करना औचित्य और प्रमाण के सर्वथा विरुद्ध होगा।