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२५० भापा-विज्ञान गई है अर्थात् चावल नहीं है । भोजन करते समय लोग कहते हैं, चावल अधिक हो गया है अर्थात् दाल नहीं है। इसी प्रकार राजा के बीमार पड़ने पर लोग कहते हैं कि बादशाह के दुश्मनों की तवीयत अच्छी नहीं है। अमंगल और अशुभ से बचने के लिये लोग दुकान बंद करने को दुकान बढ़ाना, चूड़ी उतारने या तोड़ने को चूड़ी बढ़ाना, दिया बुझाने को दिया बढ़ाना कहते हैं। ऐसे प्रयोग हिंदी में ही नहीं संस्कृत में भी कभी कभी प्रथाओं के कारण भी घुमाव-फिराव के शब्दों का प्रयोग होने लगता है जैसे भारतीय स्त्रियाँ अपने पतियों का नाम नहीं लेती। यदि किसी स्त्री के पति का नाम है रूपनारायण तो वह रुपया के स्थान पर कलदार अथवा मुद्रा शब्द का प्रयोग करने लगती है। धार्मिक भावना के कारण भी अनेक शब्दों के अर्थों में परिवर्तन श्रा जाता है, जैसे शीतला की कृपा, माता का आगमन, महारानी की दया आदि बीमारी के वाचक हैं। अर्थापकर्प का ठीक विपरीत कार्य है अर्थोत्कर्ष। पर जिस प्रकार जीवन में उत्कर्प के उदाहरण कम मिलते हैं उसी प्रकार भापा के शब्द- श्रोत्कर्ष भांडार में भी अर्थोत्कर्ष के उदाहरण कम ही मिलते हैं। 'साहस' शब्द इसका बड़ा सुंदर उदाहरण है । संस्कृत में साहस का अर्थ होता था हत्या, चोरी, व्यभिचार, कठोरता और झूठ, पर अब हिंदी, बँगला आदि में साहस का बड़ा ऊंचा और सराहनीय अर्थ हो गया है। कपड़ा' शब्द दूसरा उत्कर्प का उदाहरण है। संस्कृत के कर्पट और पाली के कप्पट का अर्थ होता था जीणे वस्त्र, पर अब तो उसका अर्थ बहुत ऊँचे पर आ गया है।

  • कृतवाले अर्थ के लिये देखिए,

मनुष्यमारण स्नेयं परदाराभिमपंगाम । पानापमन्नं चेष सास पंचधा स्मृतम ॥