पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२७८

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अर्थ-विचार जिस प्रकार प्रांत बदलने से अर्थ बदल जाता है उिसी प्रकार एक भापा से दूसरी भाषा में जाने पर भी कभी कभी अर्थ भ्रष्ट से हो जाते हैं; जैसे फारसी का खैरख्वाह शब्द हिन्दी और बगला में अब कुछ नीच वृत्ति प्रकट करता है । चालाक और चालाकी शब्दों में भी इस प्रकार का छोटा भात्र आ गया है। सतत उपयोग के कारण भी शब्दों की शक्ति कम हो जाती है जैसे वाचू, महाराज, महाशय आदि । अव बाबू में वह वड़प्पन और जमींदारी का मूल अर्थ नहीं रह गया । अव तो वह अँगरेजी के मिस्टर और हिन्दी के श्रीयुत् के समान शिष्टाचार-वाचक हो गया। हिंदी के श्रीयुत और श्रीमान् शब्दों की भी यही दशा हुई है। बावू शब्द के बारे में तो यहाँ तक भाव बदला है कि अब वाबूगिरी का अर्थ होता है छोटी नौकरी और आरामतलबी की वृत्ति । 'पाखंड' शब्द का इतिहास इस संबंध में बड़ा मनोरंजक होगा। अशोक ने कुछ ऐसे साधुओं को, जो बौद्ध नहीं थे, पाखंड कहा और उन्हें दक्षिणा भी दी। पर मतु ने पाखंड से बुरा अर्थ लिया है। वैष्णवों ने पाखंड से अवैष्णव का अर्थ लिया और उसके बाद पाखंड का अर्थ होने लगा नास्तिक, ढोंगी, कपटी ! अव हिंदी, गुजराती आदि में पाखंडी इसी नीच अर्थ में आता है। इसी अपकर्ष से मिलती-जुलती दूसरी बात यह है कि लोग कुछ अपवित्र, अशुभ और अप्रिय बातों का बुरापन कम करने के लिये सुंदर २. अर्थापदेश शब्दों का प्रयोग करते हैं और इस प्रकार उन शब्दों का अर्थ गिरा देते हैं। जैसे शौच का अर्थ होता है पवित्रता और सफाई । पर अब शौच से निवृत्त होना, 'शौच जाना' आदि प्रयोगों में शौच का अर्थ होता है पाखाने जाना। मृत्यु के लिये स्वर्गवास, पंचत्वप्राप्ति, गंगालाभ, वैकुट-लाभ आदि शब्द प्रसिद्ध ही हैं। कभी कभी इसी कटुता को बचाने के लिये रिपरीत भाव प्रकट करके अपना अर्थ स्पष्ट करते हैं। जैसे जिया कहती है कि बाल अधिक हो