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२४६ भाषा-विज्ञान पुरुष, वचन, काल, वाच्य आदि किसी का बंधन नहीं रहता। इसी प्रकार कर्मवाच्य भी पीछे से आत्मनेपद के रूपों को लेकर आगे बढ़ा है। सभी भारोपीय भाषाओं में कर्मवाच्य का विकास पीछे से हुआ क्रिया-विशेषण भी अभी हाल की चीज है। कोई भी संज्ञा अथवा विशेपण जव अव्यय बनकर विभक्तियाँ पहिनना छोड़ देता है, तब यह क्रियाविशेषण बन जाता है । यह तो हम लोगों के सामने भी हुआ करता है। जैसे चिरम्, अगत्या आदि। हिंदी, बँगला आदि में काल और परसर्ग भी अर्वाचीन संपत्ति है। संस्कृत में उपसर्ग भी धीरे धीरे संबंधवाचक अव्यय बने हैं। जव कारणवश एक ही अर्थ के वाचक कई शब्द काम में आने लगते हैं तव स्वभावत: लोग कुछ रूपों की ओर विशेष रुचि दिखाते हैं। ८. अनुपयोगी रूपों कभी यह शब्दों के निजी मूल्य के कारण होता है और कभी व्यापार तथा व्यवहार के अनुरोध का विनाश से भी ऐसा होता है कि कुछ शब्द अधिक प्रिय हो जाते हैं। किसी भी प्रकार हो, जव कुछ शब्द अथवा शब्दरूप अनुप- योगी हो जाते हैं तव आपसे आप उनका लोप होने लगता है और कभी कभी तो ऐसा होता है कि दो-तीन शब्द मिलकर एक शब्द की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में काम करते हैं, जैसे संस्कृत में देखना क्रिया के लिये वैदिक काल में दो धातुएँ थीं-स्पश् और दृश् । पीछे दोनों एक बन गई। अव पश्य' आदेश माना जाता है और केवल कुछ रूपों में उसका ग्रहण होता है और शेप कालों में दृश् के ही रूप चलते हैं। इसी प्रकार गच्छति, जगाम, अगमत् आदि की भी दशा है। संस्कृत के सर्वनाम रूपों का भी पिछला इतिहास देखा जाय तो अहम, आवाम्, वयम्, त्वं, युवाम्, सः, ते, तस्मात् श्रादि रूप भिन्न भिन्न प्रातिपदिको से बने हैं। अब भूल जाने के कारण हम सातों विभक्तियों के रूप एक ही प्रकृति से मान लेते हैं । सः जिस शब्द से