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अर्थ-विचार तब रज अथवा रेणु शवों का प्रयोग हेता है; जैसे-गुरु-चरण-रज, तीर्थरेणु इत्यादि। नम्रता दिखाने के लिये भिन्न भिन्न शब्दों का प्रयोग होता है, जैसे---- आपका दौलतखाना, मेरा गरीखाना, उन लोगों का बर; इन तीनों का अर्थ एक ही है । कभी कभी दो पर्यायवाची शब्दों में एक शिष्ट बन जाता है और दूसरा अशिष्ट; जैसे दोस्त और यार । दोनों ही मित्र के पर्याय है पर हिंदी में 'यार' अशिष्टता का अर्थ देता है । उस्ताद और उस्तादजी एक होते हुए भी भिन्न अर्थ के वाचक हैं । बेहया और निर्लज पर्याय हैं, पर लोग बेहया को अधिक बुरा समझते हैं। प्रणय और प्रेम में भी हिंदी ने बड़ा भेद कर लिया है। प्रणय केल दांपत्य प्रेम को कहते हैं। सलाम, प्रणाम, नमस्कार, नमस्ते आदि सभी शवों का सामान्य अर्थ एक ही है पर हिंदी में सलाम ब्राह्मणेतर जातियों में चलता है। प्ररणाम बड़ों के प्रति और नमस्कार वरावरीवालों के प्रति किया जाता है। नमस्ते पुराना शब्द है पर उसमें नवीन युग और सुधारवाद के भाव भरे समझ जाते हैं । इसी प्रकार आशीर्वाद देने के अनेक प्रकार हैं- आशीर्वाद, चिरंजीव, नारायण, हरिस्मरण आदि । यदि इन प्रणाम, नमस्कार के पर्यायों का संग्रह करके उनके अर्थ भेद का अध्ययन किया जाय तो बड़ा मनोरंजक शिक्षाप्रद मनोवैज्ञानिक लेख तैयार हो सकता है। जय जय, जयरामजी की, जय जिनेंद्रजी की, ॐ नमो नारायण, दण्डवत् . पालागी, आसव, शिव शिव, जय गोपाल की, वाह गुरु की इत्यादि न जाने कितने प्रयोग है पर सब में अर्थ-भेद भी है। अव थोड़ा भेद-प्रवृत्ति की सीमा का भी विचार लेना चाहिए । (१) जिन शब्दों में अर्थ-भेद होता है उन्हें उस भाषा में पहिले ही से विद्यमान रहना चाहिए । भेदीकरण विद्यमान सामग्री में ही काम करता है, वह कुछ नई सामग्री उत्पन्न नहीं करता। (२) दूसरी बात यह है कि पहले तो अर्थ-भेन स्पष्ट रहता है, पर जव संचय अधिक हो जाता है तब फिर मानव-मन उन भेदों को भूलने लगता है, अंत में जाकर अनेक शब्दों का लोप हो जाता है । जैसे खाद्