पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२४२

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रूप-विचार संख्यावाचक विशेषणों का इतिहास बड़ा मनोरंजक है। अत- एवं उसके विपय में संक्षेप में नीचे लिखा जाता है। मूल-भारोपीय भाया की गणना दशमलवात्मक थी। कहीं कहीं द्वादशमलवात्मक गणना के भी चिह्न मिलते हैं। जैसे अँगरेजी दर्जन और प्रौस (१२ दर्जन) में। इस द्वादशमलवात्मक गणना के आधार पर एक जर्मन विद्वान् ने एक बड़ी भारी ऐतिहासिक घटना का ढाँचा तैयार किया है। उसका कहना है कि द्वादशात्मक गणना का मूल वैविलोनिया- वालों की जड़ात्मक गणना है। अतएव उसके मत से पार्यो का आदिम निवास स्थान वैविलोन ही था। पर इस सिद्धांत के प्रतिपादन के लिये यथेष्ट सामग्री की कमी है। सर्वनाम और संख्यावाचक शब्द भाषा की स्थाची संपत्ति हैं और उनका परिवर्तन शीघ्र नहीं होता। विभिन्न आर्य भाषाओं के सर्वनामों में उतनी समानता नहीं है जितनी उनके संख्यावाचक शब्दों में है। आधुनिक भारतीय भाषाओं के संख्यावाचक शब्द प्राय: संस्कृत शब्दों के घिसे हुए रूप हैं । पर कहीं कहीं वे इतने घिस गए हैं कि मूल से बहुत दूर चले गए हैं, जैसे ग्यारह < एकादश । एक बात और भी विचारणीय है कि ग्यारह, चारह, तेरह, सोलह और अठारह में तो 'देश' का रह' हो गया है पर पन्द्रह में पंचदश' का 'द भी है और 'र' भी आ गया है तथा 'चौदह में मूल 'दस का ही दह' होकर आया है। इसमें 'र' का पता नहीं। क्रमात्मक संख्यावाचक शब्दों संस्कृत के 'अम्' अथवा 'तम्' से निकला हुआ 'बाँ' जोड़ दिया जाता है। जैसे दसवाँ ग्यारहवाँ, वीसवाँ, इत्यादि । पर संस्कृत में षष्ठम् न होकर पष्ठ होता है। इसों से हिंदी में 'षष्ठम्' के श्रम से छठवाँ भी लिखते हैं जो वास्तव में 'छठा' होना चाहिए । संस्कृत में प्रथम और चतुर्थ तो भिन्न हैं पर द्वितीय और तृतीय एक से हैं। इसी प्रकार हिंदी में भी पहला और चौथा भिन्न है एवं दूसरा और तीसरा एक से हैं। पर इनमें परस्पर बहुत अंतर हो गया है 1