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१९८ भाषा-विज्ञान शब्द' ही हैं जो विभक्ति का काम करते हैं। परंतु इतने रिक्त शब्दों के होने तथा विभक्तियों के कम हो जाने पर भी अभी इन आधुनिक भारोपीय भाषाओं में भी शब्द के अर्थमात्र और रूपमात्र स्वच्छंद नहीं विचर सकते। 'राम को' के स्थान में 'को राम' प्रयोग कभी नहीं चल सकता। अंत में इस अर्थमात्र और रूपमात्र के संबंध की अस्थिरता को देखकर यह कहना पड़ता है कि शब्द की परिभाषा प्रत्येक भाषा में एक सी नहीं हो सकती क्योंकि (१) किसी भाषा में एक शब्द इतना पूर्ण होता है कि उसमें अर्थमात्र और रूपमात्र दोनों रहते हैं, उसमें बाहर से कुछ भी जोड़ने की आवश्यकता नहीं होती, जैसे संस्कृत में। परंतु (२) किसी किसी भाषा में अनेक स्वतंत्र शब्दों अथवा एक शब्द और अनेक प्रत्ययों को मिलाकर एक सार्थक प्रयोगार्ह शब्द मानना पड़ता है, जैसे चीनी अथवा तुर्की में । हमें भारोपीय भाषाओं का ही विशेष विवेचन करना है। भारोपीय भाषाएँ सविभक्तिक होती हैं। संस्कृत विभक्ति प्रधानता का आदर्श है। अतः हमें संस्कृत शब्द का विश्ले- भारोपीय-भाषाओं षण करने से विशेष लाभ होगा। संस्कृत के प्रत्येक शब्द में दो अंश होते हैं-एक साध्य अंश के प्रत्यय (१) यदि केवल अर्थ की दृष्टि से रिक्त और पूर्ण का भेद किया जाय तो संस्कृत निपात और उपसर्ग तथा हिंदी के अनेक अव्यय भी रिक्त ही कहे जायँगे पर यहाँ हम रूप-मात्र की दृष्टि से हिंदी के परसर्गों को लेते हैं, क्योंकि वे कारकों से संबंध रखते हैं। (२) इसी से M. Meillet ने एक बड़ी सामान्य परिभाषा बनाई है- "A word is the result of the association of a given meaning with a given combination of sounds. capable of a given grammatical use."