पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२०८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

U उस ध्वनि और ध्वनि-विकार १८१ से यह निश्चय किया गया है कि मूल भारोपीय मातृभाषा में स्वर और वल दोनों का ही प्रावल्य रहा होगा उस मूल-भाषा में स्वर कभी प्रकृति में और कभी प्रत्यय में लगता था। आज संस्कृत में प्रायः स्वर का एक निश्चित स्थान रहता है । ग्रीक में तो इससे भी कठोर नियम है कि पढ़ के अंत से स्वर केवल तीसरे अक्षर तक जा सकता है, और आगे नहीं जा सकता । ये नियम मूल-भाषा में नहीं थे समय स्वर का संचार अधिक स्वच्छंद था । शब्दों और रूपो की रचना में स्वर कभी प्रकृति से प्रत्यय पर और कभी कभी प्रत्यय से प्रकृति पर चला जाया करता था, इससे कभी अक्षर में वृद्धि हो जाती थी और कभी ह्रास । एक ही प्रवृत्ति से उत्पन्न शब्दों में इसी वृद्धि और हाल को देखकर हम अपश्रुति का निश्चय करते हैं । ग्रीक में जब शब्द अथवा अक्षर पर उदात्त स्वर रहता है तव 'ए' पाया जाता है पर जब उदात्त स्वर नहीं रहता तव 'ओ' पाया जाता है । 'ए' को उच्च-श्रेणी अथवा उच्चावस्था और 'ओ' को निम्नश्रेणी अथवा नौचावस्था कहते हैं। इसी प्रकार की एक श्रेणी और होती है जिसे निर्वल अथवा शून्य श्रेणी कहते हैं । जिस प्रकार स्वर के हट जाने से उच्च श्रेणी से अक्षर निम्न श्रेणी में चला जाता है उसी प्रकार 'बल' के अभाव में निर्वल श्रेणी की उत्पत्ति होती है। इस श्रेणी में मूल शब्द अथवा अक्षर का सबसे निर्वल अथवा संक्षिप्त रूप देखने को मिलता है। बल के लुप्त होने से प्राय: अनेक वर्गों का लोप भी हो जाता है।