पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२०

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५ 1 विषय-प्रवेश ध्यान भाषा-संबंधी ऐसे तत्त्वों की ओर न जाता जो साधारणत: स्वयं ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । भारतवर्ष में प्राचीन काल में ही शब्दों व्युत्पत्ति और स्वरों के उच्चारण आदि पर विद्वानों का ध्यान गया था। ब्राह्मण-ग्रंथों तथा प्रातिशाख्यों में अनेक स्थानों पर इस प्रकार के विवेचन किए गए हैं पीछे से यास्क ने अपने निरुक्त ग्रंथ में, जो वेदों के छः अंगों में से एक मुख्य अंग माना जाता है तथा जो वेदार्थ-ज्ञान का प्रधान साधन समझा जाता है, इस विषय का विस्तृत विवेचन किया है । वास्तव में यह निरुक्त भाषा-विज्ञान का ही दूसरा नाम था, और है. उन दिनों निरुक्त का बहुत व्यापक अर्थ लिया जाता था; आजकल की भाँति उसमें केवल 'यास्क-कृत निरुक्त' नामक ग्रंथ का ही अभिप्राय नहीं लिया जाता था। आजकल व्याकरण के अनेक ग्रंथ देखने में आते हैं। इस- लिये व्याकरण' शब्द से किसी ग्रंथ-विशेष का बोध नहीं होता। उसी प्रकार निरुक्त-विषयक ग्रंथों की उतनी ही अविकता थी, जितनी व्याकरण संबंधी ग्रंथों की है, और 'निरुक्त' शब्द किसी ग्रंथ-विशेप का परिचायक न होकर एक शास्त्र का वोधक होता था । ब्राह्मण आदि ग्रंथों में एक और प्राचीन शब्द मिलता है जो भाषा-विज्ञान का बोधक माना जा सकता है। यह शब्द है निर्वचन जो निरुक्त शब्द का समानार्थक है। इसका साधारण अर्थ बोलना, उच्चारण करना, कहना, समझाना, व्याख्या करना, कहावत आदि है । निर्वचन का प्रचलित अर्थ है व्युत्पत्ति । निर्वचन के प्राचीन अर्थ का लोप हो गया है और अब साधारण अर्थ में ही उसका प्रयोग होता है। अतएव भाषा-विज्ञान के अर्थ में उसका प्रयोग करना समीचीन नहीं हो सकता ! एक और पुराना शब्द 'शब्दशास्त्र है जिससे आजकल व्याकरण का अर्थ लिया जाता है। यदि हम इसके अर्थ को समझे तो यह भी भली भाँति भापा-विज्ञान का पर्याय हो सकता है, क्योंकि ' भाषा शब्दों से ही बनती है और भापा विज्ञान भाषाशास्त्र' वास्तव में शब्द-विज्ञान' या 'शब्द-शास्त्र' ही है । पर यह 'शब्द-शास्त्र' पद एक