पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१८७

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. १६२ भापा-विज्ञान के बीच में किसी स्वर का आगम होता है तब वह स्वर-भक्ति अथरा युक्तविकप के कारण होता है; जैसे-सं० श्लाघा, पा० सिलाया, प्रा० सलाहा, हिं० सराहना। (ख) दूसरे प्रकार का स्वरागम, अपिनिहिति के कारण होता है; जैसे-~अली> बइलि> वइल, बइल्ल, बइल्लु > वेल, वेल इत्यादि । वल्ली (लता)> वइल्लि > वइल > वेल > वेली, वेला आदि । पर्व > पउरु > पडर > पोर। इसके उदाहरण अवेस्ता में अधिक मिलते हैं। अपिनिहिति के उदाहरण हिंदी में कम मिलते हैं पर स्वर-भक्ति के भागमवाले तद्भव शब्द हिंदी में बहुत हैं; जैसे--अगनी, अगनबोट, हरख, परताप, मिसिर, सुकुल, पूरब, भगत श्रादि । (ग) अंत्य स्वरागम-शब्द के अंत में स्वर और व्यंजन का लोप तो प्रायः सभी काल की भा० आर्य भाषाओं में पाया जाता है पर अंत में स्वर का आगम नहीं पाया जाता । कुछ लोगों की कल्पना है, कि प्राकृत काल के भल्ल और भद्र जैसे शब्दों के अंत में 'आ' का श्रागम हुआ है पर यह सिद्धांत अभी विद्वानों द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ है। प्राचीन ईरानी भापाओं में अंत्य स्वरागम भी पाया जाता है; जैसे-सं० अंतर, अवे में antar के समान उच्चरित होता है । अनेक शब्दों के वर्गों का आपस में स्थान-परिवर्तन हो जाने से नये शब्दों की उत्पत्ति हो जाती है। यह विपर्यय की प्रवृत्ति कई भापायों. में अधिक और कई में कम--सभी भापात्रों में कुछ (४) वर्ग-विपर्यय न कुछ पाई जाती है। हिंदी में भी इस पर्यय अथवा व्यत्यय के सुंदर उदाहरण मिलने हैं- स्वर-विपर्यय मंग 'अंगुली उंगली