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ध्वनि और ध्वनि-विकार १६१ आगम भी लोप ही के समान स्वर और व्यंजन दोनों का होता है। और यह द्विविध वर्णागम शब्द के आदि, अंत और मध्य, सभी (३) आगम. स्थानों में होता है, जैसे - (१) आदि व्यंजनागम ओष्ठ से होठ, अस्थि से हड्डी। (२१ मध्य न्यंजनागम-निराकार, व्यास, पण, शाप, वानर, सूनरी, सुख से क्रमशः निरंकाल, बासु, प्रण, श्राप, बंदर, सुंदरी, सुक्ख ! य और वकी श्रुति तो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी आदि सभी में पाई जाती है, विष्ण- इह-विष्णविह, मअंक मयंक, गत:>गअ>गया आदि श्रुतियों के उदाहरण सभी काल में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। पाली में अन्य व्यंजनों के मध्य भागम के उदाहरण भी अनेक मिलते हैं। जैसे--सम्म+ ज्ञा=सम्ममा (सम्यक् ज्ञान ) पारग्गो+इब==आरगारिख (श्राराक समान) बोलचाल में नंगा, नित, रेल आदि निहंग, निन्द्या, रेहल आदि हो जाते हैं। संस्कृत में संयुक्त व्यंजनों के साथ जो 'यम' का वर्णन आता है वह भी एक प्रकार का मध्यागम ही है। गुजराती का श्रमदा- बाद हिंदी में अहमदाबाद हो जाता है। यह भी मध्यागम ही है। (३) अंत्य व्यंजनागम-छाया>छा> छह; कल्य > कल्ल> कल>कह। (४) आदि स्वरागम-लै० Schola 20 ecole अं० स्कूल से इस्कूल, स्टेशन से इस्टेशन, सं०..स्तान से अस्नान, स्त्री से इत्री, इत्यिया से इत्थी आदि आदि स्वरागम के उदाहरण हैं। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि उसी स्त्री शब्द से आदि-लोप द्वारा तिरिया और आदि. आगम द्वारा इत्थिया के समान शब्द वनते हैं। ग्रीक, अवेस्ता आदि कई भाषाओं में यह आदि स्वरागम अथवा पुरोहिति की विशेष प्रवृत्ति देख पड़ती है। (५) मध्य स्वरागम-इंद्र का इंदर, दर्शत (दरशत-वै०), श्रम. का भरम, प्रकार का परकार, स्वर्ण का सुर्ण; सुवर्ण से सुवरन, क्लांत से किलित, स्निग्ध से सिगिद्ध, पत्नी से पतनी, मनार्थ से मनोरथ । मध्य स्वरागम के भी दो भेद किये जाते हैं (क) जव दो संयुक्त व्यंजनों फा०११