पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१८२

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ध्वनि और ध्वनि-विकार १५७ मात्रा में है। यह मात्रा-भेद बल अर्थात् श्राधात के अनुसार होता है , और वह हिंदी में भी देख पड़ता है, जैसे मीठा, बाट, काम, भीख आदि । में पहले अक्षर पर वल है पर जब वही बल का झटका आगे के अक्षर पर आ जाता है तव दीर्घ स्वर हस्त्र हो जाता है; जैसे-मिठास, वटोही, कमाउ, भिखारी आदि। यह कई प्रकार का होता है. वर्णलोप, अक्षरलोप, आदि लोप, मध्य- लोप, अंत-लोप । वर्ण-लोप के भी दो भेद होते हैं--स्वर-लोप और व्यंजन-लोप । (अ) प्राकृतों में व्यंजन-लोप के अनेक उदाहरण मिलते हैं। प्राकृत पदों के अंत में व्यंजनों का सदा लोप हो जाता है और मध्य में भी प्रायः व्यंजन-लोप का कार्य देखा जाता है। हिंदी में व्यंजनों का लोप नहीं देखा जाता, प्रत्युत वैदिक संस्कृत के समान हिंदी में भी पद के अंत में सभी व्यंजन पाए जाते हैं। यद्यपि लिखने में स्वर की मात्रा प्राय: रहती है तथापि वास्तव में अधिक शब्द हलंत ( अर्थात् व्यंजनांत ) ही होते हैं; जैसे माङ्, माँग , सीख आदि हलंत पद ही हैं जो स्वरांत लिखे जाते हैं आदि-व्यंजन-लोप के उदाहरण भी प्राचीन आर्ष अपभ्रंश ( वैदिक ) में श्चंद्रः से चंद्र और स्तारा से तारा आदि मिलते हैं। (२) लोप । आदि-व्यंजन-लोप आदि-व्यंजन-लोप के उदाहरण अँगरेजी, ईरानी आदि भाषाओं में भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं; जैसे---(१) आदि-व्यंजन-लोप-अंगरेजी - knight hour, heir श्रादि: अवे० हंजुमन ( सभा) > अंजुमन (आ० फा), सं० हस्त > का० अथ, जिहली अत; सं० शुष्क > फा० उश्कुदन अवे. हुस्क >प्रा० फा० उस्क; सं० स्थान >हिं० थान, ठाँ; सं० स्थाणु >प्रा० थाणु; अॅ० Station> हिं० टेशन; सं० बल 2 वलना; सं द्वे से वे आदि सब में आदि-लोप ही तो हुआ है।