पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१७७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५२ भाषा-विज्ञान अनुस्वार का अनुनासिक व्यंजनवत् उच्चारण होता था। पाली में श, ष, स तीनों के स्थान में स का ही प्रयोग होता था । पर पश्चिमोत्तर के शिलालेखों में तीनों का प्रयोग मिलता है। परवर्ती काल की मध्यदेशीय प्राकृत में अर्थात् शौरसेनी में तो निश्चय से केवल स का प्रयोग होने लगा। संस्कृत के अन्य सभी व्यंजन पाली में पाए जाते हैं। तालव्य और वर्त्य स्पों का उच्चारण-स्थान थोड़ा और आगे बढ़ पाया था। पाली के काल में ही वय॑ वर्ण अंतर्दत्य हो गए थे। तालव्य स्पर्श-वर्ण उस काल में तालु-वयं घर्ष-स्पर्श वर्ण हो गए थे । तालव्य व्यंजनों का यह उच्चारण पाली में प्रारंभ हो गया था और मध्य प्राकृतों के काल में जाकर निश्चित हो गया। अंत में किसी किसी आधुनिक देश-भाषा के आरंभ-काल में वे ही तालव्य च, ज दंत्य घर्ष-स्पर्श ts ds और दंत्य ऊष्म स, ज हो गए । प्राकृत ध्वनि-समूह पाली के पीछे की प्राकृतों का ध्वनि-समूह प्राय: समान ही पाया जाता है। उसमें भी वे ही स्वर और व्यंजन पाए जाते हैं। विशेषकर शौरसेनी प्राकृत तो पाली से सभी बातों में मिलती है। उसमें पाली के डढ़ भी मिलते हैं। पर न और य शौरसेनी में नहीं मिलते। उनके स्थान में ण और ज हो जाते हैं। अपभ्रंश का ध्वनि-समूह अपभ्रंश काल में आकर भी ध्वनि-समूह में कोई विशेष अंतर नहीं देख पड़ता। शौरसेन अपभ्रंश की ध्वनियाँ प्रायः निम्नलिखित थीं।