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ध्वनि और ध्वनि-विकार २४९ (४) मध्यकालीन श्रार्य भाषाओं (अर्थात् पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि) और आधुनिक आर्य देश-भाषाओं (हिंदी, मराठी, बँगला आदि) के ध्वनि-विकास से भी प्रचुर प्रमाण मिलता है। (५) इसी प्रकार अवेस्ता, प्राचीन फारसी, ग्रीक, गाथिक, लैटिन आदि संस्कृत की सजातीय भारोपीय भाषाओं की तुलना से भी सहायता मिलती है । (६) और इन सबकी उचित खोज करने के लिये ध्वनि-शिक्षा के सिद्धांत और भाषा के सामान्य ध्वनि-विकास का भी विचार करना पड़ता है । वैदिक के बाद मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा के दो प्रारंभिक रूप हमारे सामने आते हैं---लौकिक-संस्कृत और पाली । लौकिक संस्कृत उसी प्राचीन भाषा का ही साहित्यिक रूप था और पाली उस प्राचीन भाषा की एक विकसित बोली का साहित्यिक रूप । हम दोनों की ध्वनियों का दिग्दर्शन मात्र करावेंगे। पाणिनि के चौदह शिव- सूत्रों में बड़े सुंदर ढंग से परवर्ती साहित्यिक संस्कृत की ध्वनियों का वर्गीकरण किया गया है। उसका भापा-वैज्ञानिक कम देखकर उसे धुणाक्षरन्यायेन बना कभी नहीं कहा जा सकता 1 उसमें भारतीय वैज्ञानिकों का तप निहित है । वे सूत्र ये हैं- १-अईउण ८-झम २--लक ९-बढधष् १०-जबगडदश् ४-ऐऔच ११--खफछठथचटत्तव ५-हयवरट १२- कृपय् १३-शपसर --अमङरणनम् १४-हल पहले चार सूत्रों में खरों का परिगणन हुआ है। उनमें से भी पहले तीन में समानाक्षर गिनाए गए हैं। (१) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ए, ओये ग्यारहों वैदिक काल के समानाक्षर हैं; परवर्ती काल में अ. का. उच्चारण ३--ऐओङ्ग