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ध्वनि और ध्वनि-विकार १३९ ध्वनि-विचार के दो साधारण विभाग कर लिए जाते हैं-(१) इतिहास और तुलना तथा (२) ध्वनि-संबंधी सामान्य और विशेष सिद्धांत । इसी प्रकार के प्रारंभ में ध्वनि के शास्त्रीय विवेचन से यह स्ट हो गया कि ध्वनि कम से कम भाषण-ध्वनि-असंख्य होती है, अत: उनमें से प्रत्येक के लिये संकेत बनाना कठिन ही नहीं, असंभव है। वास्तव में देखा जाय तो व्यवहार में जो भापा आती है उसकी ध्वनि- संख्या परिमित हो होती है। अत: बीस या तीस लिपिचिह्नों से भी किसी-किसी भाषा का सब काम चल जाता है। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि प्रत्येक भाषा की परिस्थिति और आवश्यकता एक सी नहीं होती, इसी से ध्वनियाँ भी भिन्न भिन्न हुआ करती हैं। कभी कभी तो एक ही वर्ण एक भाषा में एक ढंग से उच्चरित होता है और दूसरी भाषा में दूसरे ढंग से। उदाहरणार्थ हिंदी और मराठी की लिपि नागरी है पर दोनों के उच्चारण में बड़ा अंतर पाया जाता है। इसी प्रकार अँगरेजी और फ्रेंच की वर्णमाला प्राय: समान हैं तो भी ध्वनियों के उच्चारण में बड़ा अंतर है । अत: किसी विदेशी भापा के ध्वनि-प्रबंध (अर्थात् ध्वनि-माला) से परिचित्त होने के लिये---उस भापा को ठीक ठीक लिख और बोल सकने के लिये-- हमें या तो उस भाषा के विशेपज्ञ वक्ताओं के उच्चारण को सुनना चाहिए अथवा उसकी ध्वनियों का वैज्ञानिक वर्णन पढ़कर उन्हें सीखना चाहिए। पहली. विधि व्यवहार के लिये और दूसरी विधि शास्त्रीय विवेचन के लिये अधिक सुंदर और सरल होती है। इसी उद्देश्य से आजकल भाषा-वैज्ञानिक पाठ्य पुस्तकें लिखी जाती । उनसे सहज ही विदेशी ध्वनियों का ज्ञान हो जाता है । पर किसी मृत भाषा की- अमर वाणी की ध्वनियों का ज्ञान इस प्रकार नहीं हो सकता। हमें उसके लिये बड़ी खोज करनी पड़ती है और तव भी सर्वथा संदेह दूर नहीं हो पाता। पर इतिहास को उत्सुकता शांत करने के लिये--माया के रहस्य का भेदन करने के लिये अतीत काल की असर बोलियों के ध्वनि प्रबंध की खोज करना आवश्यक होता है । यदि अँगरेजी अथवा