पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१५८

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ध्वनि और ध्वनि-विकार १३३ उत्पन्न करती रहे, अत: स्थान-परिवर्तन अवश्य होता है। जैसे- 'एका' शब्द में तीन ध्वनियाँ हैं; उसके उच्चारण में जीम को पहले श्रुति (१) ए.स्थान से क-स्थान को और फिर (२) क-स्थान से आ-स्थान को जाना पड़ता है। इन परिवर्तनों के समय हवा तो निकला ही करती है और फलत: एक स्थान और दूसरे स्थान के वीच परिवर्तन-ध्वनियाँ भी निकला करती हैं। ये परिवर्तन-ध्वनियाँ श्रुति कही जाती हैं। इनके दो भेद होते हैं। पूर्वश्रुति उस परिवर्तन-ध्वनि को कहते हैं जो किसी स्वर अथवा व्यंजन के पूर्व में आती है । और जो पर में आती है उसे पर-श्रुति अथवा पश्चात् शुति कहते हैं। बहुत तेजी से और वेपरवाह होकर लिखने में लेखक की लेखनी जहाँ जहाँ रुकती है वहाँ वहाँ वणों और शच्चों के बीच में आपसे श्राप ऐसे चिह्न बन जाते हैं कि एक अजानकार को वे इतने बड़े दीखते हैं कि उसके लिये वह लेख पढ़ना ही कठिन हो जाती है । इसी प्रकार बोलने में भी ये हल्के उच्चारणवाली श्रुतियाँ कभी कभी इतनी प्रधान हो जाती हैं कि वे निश्चित ध्वनि ही बन जाती हैं । इसी से ध्वनि के विकार और विकास में श्रुति का भी महत्त्व माना जाता है । पहले श्रुति इतने लघु प्रयत्न से उच्चरित होती है कि उसे लधुप्रयत्नतर भी नहीं कहा जा सकता, पर वही प्रवृत्ति यदि कारणवश थोड़ी बढ़ जाती है तो एक चौथाई अथवा श्राधे वर्ण के समान श्रुति होती है । श्रुति जव और भी प्रबल होती है तब स्पष्ट एक वर्ण ही बन जाती है। इस प्रकार श्रुति एक नये वर्ण को जन्म देती है। इस वृत्ति के उदाहरण सभी भाषाओं में मिलते हैं । इन्द्र, पर्वत, प्रकार, श्रम आदि के संयुक्त वों के बीच में जो श्रुति होती थी वही मराठी, हिंदी आदि भाषाओं में इतनी बढ़ गई कि इंदर, परबत, परकार, भरम आदि बन गए। इस प्रकार इस 'युक्त-विकर्ष का कारण 'श्रुति' में मिलता है । स्कूल और स्नान के लिये जो इसूल अस्कूल, इस्नान-अस्नान आदि रूप बोले जाते हैं वे पूर्वश्रुति के ही फल हैं । इन उदाहरणों में स्वर का आगम हुआ है। इसी प्रकार व्यंजन श्रुति भी होती है, जैसे सुनर में जो न और अ