पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१५४

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L ध्वनि और ध्वनि-विकार १२९ L नीचे आती है उसको विवृत (खुला ) कहते हैं। इन दोनों स्थानों के बीच के अंतर के तीन भाग किए जाते हैं। जो संवृत्त से ' दूरी पर पड़ता है वह ईघत्-संवृत्त अथवा अर्द्ध-संवृत (अधमुंदा ) कहलाता है; और जो विवृत से दूरी पर पड़ता है वह ईपद्-विवृत अथवा अर्द्ध-विवृत्त (अधखुला) कहलाता है। (अत्र, मिश्र और पश्च) के उदाहरण क्रमशः 'ईख', 'रईस' और 'ऊपर' शब्दों में ई, अ और ऊ हैं । सिंवृत, पित्-संवृत, ईषद्-विवृत और विवृत) के उदाहरण क्रमशः 'ऊपर', 'अनेक', 'बोतल'आम' में ऊ, ए, ओ और श्रा है).. इसी प्रकार जीभ की अवस्थाओं का विचार करके और अनेक भाषाओं की परीक्षा करके भाषा-शास्त्रियों ने पाठ मान-स्वर स्थिर किए हैं। इन स्वर-ध्वनियों के लिये जीभ की आवश्यक अवस्थाओं का तथा उनके श्रवण गुणों का वर्णन किया है । ये आठों मान-स्त्रर भिन्न भिन्न भाषाओं के स्वरों के अध्ययन के लिये बटखरों का काम देते हैं। इनका ज्ञान किसी विशेषज्ञ से मुखोपदेश द्वारा कर लेने पर ध्वनि-शिक्षा का अध्ययन आगे ग्रंथ द्वारा भी हो सकता है। हम भी पहले इन मान-सरों का चित्र खीचेंगे और फिर उन्हीं से तुलना करते हुए हिंदी के स्वरों का चित्र बनावेंगे और उनका सविस्तर वर्शन करेंगे। चित्र सं० ४ में जो अंतर्राष्ट्रीय लिपि में अक्षर लिखे है वे मान स्वर ( Cardinal Vowels ) है और जो नागरी लिपि में लिखे अक्षर हैं वे हिंदी के मेयस्वर हैं; चित्र सं० ५ में जो कोष्ठक के भीतर दिए गए हैं वे केवल बोलियों में पाए जाते हैं। और एक ही क्रॉस चिह्न ( ४ ) के सामने जो दो अक्षर लिखे गए हैं वे एक ही समान उच्चरित होते हैं क्योंकि अपित स्वर के उच्चारण में जिहा द्वारा कोई अंतर नहीं होता-- केवल काफल की स्थिति थोड़ी भिन्न हो जाती है। इस प्रकार यद्यपि साधारण स्वर कुल १९ होते हैं, पर यहाँ जीभ की अवस्थाएँ केवल १६ चिह्नित की गई हैं। इसी प्रकार सानुनासिक और संयुक्त स्वरों का भी यहाँ विचार नहीं किया गया है। आगे होगा। फा०९