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११६ भापा-विज्ञान वर्गीकरण ऐसी दूसरी ध्वनियों के साथ होता है, जिनका उनसे कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं रहता। प्रायः ऐसी अनेक भापण-पनियों के लिये एक ध्वनि-संकेत का व्यवहार होता है। ऐसी सजातीय ध्वनियों के कुल को धनि-मात्र अथवा ध्वनि-श्रेणी कहते हैं। यदि शास्त्रीय विधि से कहें तो ध्वनि-मात्र किसी भापा-विशेप की ऐसी संबंधी ध्वनियों के कुल को कहा जाता है, जिन ध्वनियों का स्थान एक संबद्ध भाषण में अन्य कोई ध्वनि नहीं ले सकती। इस प्रकार ध्वनि-मात्र एक जाति है, जिसमें अनेक भापण-ध्वनियाँ होती हैं और प्रत्येक भापण-ध्वनि की एक अलग सत्ता या व्यक्तित्व होता है। दोनों में प्रधान भेद यही है एक ध्वनि-मात्र कई स्थानों में सामान्य रूप से व्यवहृत होती है, पर भाषण-ध्वनि में व्यक्ति-वैचित्र्य रहता है। एक भापण-ध्वनि के स्थान- विशेप में दूसरी भापण-ध्वनि नहीं आ सकती। इसी से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि व्यवहार और शिक्षा का संबंध उस सामान्य ध्वनि से रहता है जिसे ध्वनि-मान (वर्ण) कहते हैं और जिसके लिये लिखित संकेत भी रहता है। 'जल्दी' और 'माल्टा' शब्दों में एक ही 'ल' ध्वनि प्रयुक्त हुई है, पर परीक्षा करके विशेषज्ञों ने निश्चय किया है कि पहला 'ल' दंत्य है और दूसरा ईषत् मूर्धन्य है, अर्थात् भापण में ( = बोलने में ) दोनों शब्दों के 'ल' का उच्चारण एक सा नहीं होता । अत: ध्वनि.मात्र तो एक ही है पर साषण-ध्वनियाँ दो हैं। इसी 'ल' का महाप्राण उच्चारण भी होता है। जैसे कलही' में 'ल' के समान अल्पप्राण नहीं है, प्रत्युत स्पष्ट महाप्राण है। वही 'लू' तिलक शब्द में मूर्धन्य है। यद्यपि हिंदी अथवा उर्दू में 'ल' मूर्धन्य नहीं होता; वह दंतमूल अथवा वर्ल्स से उच्चरित होता है, पर मराठी तिलक शब्द के आ जाने पर उसका वैसा ही मराठीवाला मूर्धन्य उच्चारण किया जाता है । ये सब एक ध्वनि- . मात्र की भिन्न भिन्न भाषण-ध्वनियाँ हैं । एक दूसरा 'अ' का उदाहरण लें तो अ वर्ण के दो भेद माने जाते हैं-एक संवृत अ और दूसरा विवृत श्र। ये दोनों ध्वनि-मात्र हैं, पर एक संवृत 'अ' की भी वक्ता