पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१२३

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भाषा-विज्ञान करने लगें और उस भेदोंवाली बोली में साहित्य-रचना भी करें। ऐसी बातें तेलगु के संबंध में नहीं हैं। तेलुगु का व्यवहार दक्षिण में तामिल से भी अधिक होता है; उत्तर में चाँदा तक, पूर्व में बंगाल की खाड़ी पर चिकाकोल तक और पश्चिम में निजाम के प्राधे राज्य तक उसका प्रसार है । संस्कृत ग्रंथों का यही आंध्र देश है और मुसलमान इसी को तिलंगाना कहते थे । मैसूर में भी इसका व्यवहार पाया जाता है। 'बंबई और मध्यप्रदेश में भी इसके चोलनेवाले अच्छी संख्या में मिलते हैं। इस प्रकार द्राविड़ भाषाओं में संख्या की दृष्टि से यह सबसे बड़ी है । संस्कृति और सभ्यता की दृष्टि से यह तामिल से कुछ ही कम है। आधुनिक साहित्य के विचार से तो तेलुगु अपनी वहिन तामिल से भी बढ़ी-चढ़ी है। विजयानगरम् के कृष्णराय ने इसकी उन्नति के लिये बड़ा यत्न किया था, पर इसमें वाङ्मय बारहवीं शताब्दी के पहले का नहीं मिलता । इसमें संस्कृत का प्रचुर प्रयोग होता है । इसमें स्वर-माधुर्य इतना अधिक रहता है कि कठोर तामिल उसके सौंदर्य को कभी नहीं पाती। इसके सभी शब्द स्वरांत होते हैं, व्यंजन पद के अंत में आता ही नहीं, इसी से कुछ लोग इसे, 'पूर्व की इटाली' भाषा ( Italy of East) कहते हैं। द्राविड़ वर्ग की भाषाओं में तामिल सबसे अधिक उन्नत और साहित्यिक भाषा है । उसका वाडमय बड़ा विशाल है। आठवीं शताब्दी से प्रारंभ होकर आज तक उसमें साहित्य- द्राविड़ वर्ग रचना होती आ रही है। आज भी बैंगला, 'हिंदी, मराठी श्रादि भारत की प्रमुख साहित्यिक भाषाओं की बराबरी में तामिल का भी नाम लिया जा सकता है। तामिल को विभापात्रों में परस्पर अधिक भेद नहीं पाया जाता, पर चलती भापा के दो रूप पाग जाते हैं-एक छंदस-काव्य की भाषा जिसे वे लोग 'शेन' (= पूर्ण) कहते हैं और दूसरी बोलचाल की जिसे वे कोडुन (गॅवार) रहते हैं। मलयालम तामिल की जेठी बेटी' कही जाती है । नवौं शताब्दी