यहाँ चन्द्रोदय कारण और मान मिटना कार्य का साथ साथ होना दिखलाया गया है। २ ) जब कार्य और कारण एक ही में सम्मिलित से कहे जाय । जैसे, तुम्हारी कृपा ही मेरी ऋद्धि समृद्धि है। यहाँ कृपा कारण और ऋद्धि तथा समृद्धि कार्य दोनों एकमय कहे गये हैं १६६-२००-अनुप्रास उस शब्दालंकार को कहते हैं जिसमें किसी पद के एक ही अक्षर बार बार पाकर उस पद को अधिक शोभा बढ़ावें । इसके पाँच भेद हैं - छेकानुपास, वृत्यनुप्राम, श्रत्यनुप्रास, लाटानुप्रास और अंत्यानुप्राम। छेकानुप्रास उसको कहते हैं जिसमें कई व्यंजनों की, स्वर के एक न रहते भी, ( कुछ ही अंतर पर ) प्रत्येक को दो बार श्रावृत्ति हो । जैसे, प्यारे ! अधर में अंजन, नेत्रों में पीक और ठीक कठोर हृदय पर मुक्ता- माला का चिन्ह उपट कर प्रकट हो रहा बस उदाहरण में कुछ कुछ अंतर पर श्र, प, क, ठ, और ह की श्रावृत्ति है। -जब शब्दों और पदों को श्रावृत्ति हो पर ( अन्वय के भेद से ) अर्थ में भेद हो। जैसे, जिसके पास प्रिय है, उसके लिए धाम नहीं है वह चाँदनी के समान हो जाती है ( अर्थात् तापकारक नहीं है ) पर जिसका प्रिय पास नहीं है उसके लिए चाँदनी भी घाम ( के समान तापकारक ) है। शब्दों और पद की पूर्ण श्रावृत्ति होने पर भी अन्वय के भेद से भिन्न भिन्न दो अर्थ निकले। २०३ -जब केवल शब्दों की सुनने में प्रावृत्ति मालूम हो पर अर्थ भिन्न हो जैसे, चन्दन और चन्द नहीं शीतल हैं। वे अग्नि से अधिक ( तापकारक ) मालूम होते हैं। The .
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