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१८६-जब कही हुई बात का श्लेष या ( क्रोध श्रादि से विकृत ) स्वर से दूसरा अर्थात् उल्टा अर्थ लगाया जाय । जैसे, हे पति तुम अपूर्व रसिक हो और तुम्हें बुरा कोई नहीं कहता । नायिका क्रोध के कारण व्यंग्य से उल्टा कह रही है। उसका तात्पर्य है कि तुम झूठे प्रेमी हो और सभी तुम्हारी बुराई करते हैं। १६०--जब किसी का वर्णन उसी की अवस्था, स्वभाव श्रादि के अनु- सार ही किया जाय । जैसे, वह हँसकर देखती है, फिर सिर झुका लेती है और इतरा कर मुख घुमा लेती है। नायिका की क्रियाओं का स्वाभाविक वर्णन है। १६१-जब भूत या भविष्य की बातों का वर्तमान के समान प्रत्यक्ष रूप में वणन हो। जैसे, आज भी वह लोला वृंदावन में ( प्रत्यक्ष सी होती हुई ) मुझे दिखलाई पड़ती है। भूतकाल में देखी हुई लीला को स्मृति ऐसी तीब है कि नायिका को वह उस समय भी होती सी मालूम पड़ती है। १६२-जब किसी के थोड़े गुण का परिचय देकर उससे बहुत बड़ा चढ़ा वर्णन प्रकट किया जाय । जैसे, थोड़ी ही सो बात सुनकर तुम जिसके वश हो जाते हो। इसका तात्पर्य यह है कि थोड़ी सी बात से जब तुम वशीभूत हो गए तब उसके अधिक बातों का कितना विशेष प्रभाव पड़ेगा। भारतो-भूषण में इसका लक्षण यों दिया है- श्लाघनीय जो चरित सो अंग भौर को होइ । अरु अति संपति बनियो है उदात्त विधि दोइ ॥ अर्थात् उदात्त दो प्रकार के होते हैं-(१) जब किसी के उसी प्रशंसनीय चरित्र का उल्लेख हो जो अन्य के साथ सम्बन्ध रखता हो । (२) जब ( संभाव्य ) विभूति का बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया जाय ।