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( ६२ ) १५६---जो कुछ कहना है उसे स्पष्ट न कहकर प्रतिबिंब मात्र कहा जाय ! जैसे, पुल बाँधकर अब क्या करेगा, जल तो उतर गया। कोई किसी से कहता है कि वाधा दूर हो गई है अब इतने प्रयत्न की कोई आवश्यकता नहीं है। १६० -६२-प्रहर्षण ( = प्रानंद ) के तीन भेद होते हैं- ( १ ) बिना यत्न के इच्छिन फल का प्राप्त होना । जैसे, जिसे हृदय चाहता था वह श्राप ही दूती बनकर आ पहुँची। ( २ ) बिना प्रयत्न के इच्छा से अधिक फल की प्राप्ति हो । जैसे, दोषक बालने की तैयारी करते ही थे कि सूर्योदय हे। गया । ( ३ ) जब वांछित पदार्थ के प्राप्त्यर्थ उद्योग की तैयारी करते ही वह पदार्थ मिल जाय । जैसे, ( पृथ्वी में पड़े हुए धन को देखने के लिए ) निधि अंजन को औषधी खोजते समय श्रादि कारण ( धन ) ही मिल गया । -जब कुछ इच्छा के विरूद्ध हो जाय । जैसे, नोवी पर हाथ डालते हो अरुण-शिखा की बाँग ( सबेरा होने की सूचना । सुनाई पड़ी। १६४-जब एक के गुण या दाप से दूसरे में गुण या दोष का होना दिखलाया जाय । जैसे, गंगाजी का यह प्राशा है कि सजन स्नान करके उसे पावन करें। गुण से गुण, दोष से दष, गुण से दोष और दोप से गुण का होना दिखलाने से यह अलंकार चार प्रकार का होता है । भाषाभूषण का उदाहरण प्रथम भेद है। कुछ लोगों की राय में प्रथम दो सम और अंतिम दो विषम माने जाने चाहिए। १६५-जब एक वस्तु के गुण वा दोष से दूसरी वस्तु का गुण वा दोष न प्राप्त करना कहा जाय । जैसे, चंद्रमा की किरणों के लगने से भी कमल नहीं खिलता। गुण से गुण तथा दोष से दोष न प्राप्त होना दो भेद हैं ।