१४२-१४३-पर्याय दो प्रकार के होते हैं- (१) जब अनेक वस्तु का एक ही के आश्रित होने का वर्णन हो । जैसे, पैरों में पहले चपलता थी पर अब मंदता आ गई है ( अर्थात् नायिका मंदगामिनी हो गई है। ( २ ) जब एक वस्तु के क्रमशः अनेक आश्रय लेने का वर्णन हो । जैसे, स्त्री की मुख-शोभा कमल को छोड़कर चंद्रमा में श्रा बसी है । रात्रि में कमल के मुरझा जाने से उनकी उपमा स्त्री-मुख से न दी जाकर चंद्र से दी जाती है। इसके विपरीत दिन में कमल से उपमा दी जाती है क्योंकि तब चंद्र नहीं रहता । इनमें श्राश्रय या श्राधार कहीं संहत ( मिलित ) और कहीं असंहत होता है। प्रथम में पैर ही में दोनों का आश्रय है । दूसरे में मुख दुति का अाधार कमल और चंद्र दी है। एक ही वस्तु अनेक में क्रम से, एक ही समय में नहीं, जाती है, इसीसे यह विशेषालंकार से भिन्न है। परिवृति से इसलिये भिन्न है कि इसमें बदला नहीं होता। १४४-जब थोड़ा देकर अधिक लिया जाय । जैसे, यह एक तीर चला कर शत्र लघमी का कटाक्ष लेता है अर्थात् लक्ष्मी प्राप्त करता है न्यून तीर के बदले शत्रु की लपमी ही प्राप्त कर लेता है हिन्दी कविता में प्रायः न्यून तथा अधिक के अदल बदल ही के उदा- हरण मिलते हैं इसीलिए भाषाभूषण में केवल विषम परिवृत्ति के लक्षण को ही परिवृत्ति का लक्षण मान लिया है। उत्तम से उत्तम और न्यून से न्यून के विनिमय को समपरिवृत्ति और उत्तम से न्यून तथा न्यून से उत्तम के विनिमय को विषम परिवृत्ति कहते हैं । इस प्रकार चार भेद हुए, जिनमें से केवल अन्तिम इस ग्रंथ में दिया गया है। इसी को विनिमय अलंकार भी कहते हैं। १४५-जब किसी बात का दूसरे स्थान पर स्थापित होना उसी के
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