( ५३ ) यह दो प्रकार का होता है-जिस निमित्त से कार्य नहीं हुआ उसका उल्लेख होने से उक्तगुण और न उल्लेख होने से अनुक्तगुण दो हुए । अचिंत्य गुण अनुक्तगुण का भेद मात्र है। यह उदाहरण अनुक्तगुण-विशेषोक्ति है क्योंकि दोप के जलते हुए भी तैल के कम न होने का कारण नहीं दिया गया है ! यदि 'हे अक्षय स्नेहमयी तुम्हारे' इतना बड़ा दिया जाय तो उक्तगुण हो जाय । ११७-जब किसी संभावना के न रहते हुए भी कोई कार्य हो जाय । जैसे, कौन जानता था कि आज गोपसुत ( कृष्णजी ) पहार उठा लेंगे। शिवराजभूषण छं० १९६ में यही लक्षण दिया गया है। ११८-२०-प्रसंगति तीन प्रकार की होती है- (,) जब कार्य और कारण में देश-काल-संबंधी अन्यथाव दिख- लाया जाय । जैसे, कोयल ( वसंत-आगमन से प्रसन्न हो ) मत्त हुई पर प्राम की मंजरी झूम रही है ( हवा के कारण )। कोयन के मत्त होने से भाम्र-वृत का झूमना दिखलाया है। दोनों- कारण और कार्य-संबंध हैं। ( २ ) जिस स्थान पर कार्य का होना उचित है वहाँ न होकर दूसरे स्थान पर होना । जैसे, तुम्हारे शत्रु की नो ने हाथ में तिलक लगा लिया है। तिलक मस्तक पर लगाया जाता है उसे हार्थों में लगा लिया । इसका यह तात्पर्य हो सकता है कि शत्रु की स्त्री ने माथे का सिंदूर विंदु पतिशोक से हाथों से पोंछ डाला । डा. ग्रिअर्सम ने श्लेष से तिलक को तिल+क करके क का अर्थ जल लिया है पर हिंदी शब्दसागर में क का अर्थ जल नहीं मिलता। कं का अर्थ अवश्य जल है। कभी कभी धारा ठीक करने को कविगण 'को' को 'क' सा भी लिख जाते हैं। इससे तिल+क का अर्थ तिल को लेने से डा. साहेब का अर्थ ठीक हो जाता है अर्थात् शत्रु को स्त्रियाँ पति को जल देने के लिए हाथ में तिल लेती हैं ।
पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।