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( ४६ ) श्राप ज्ञानचर्चा करने वाले इस प्रस्तुत की प्रशंसा है। यह प्रथम पाँच भेद में से कार्य निबंधना है। ( २ ) जिसमें प्रस्तुत का अंश रूप में वर्णन रहते हुए अप्रस्तुत का ( विशेष ) वर्णन हो । जैसे, कंठ में विष के रखने के कारण शिव जी जन ( गंगाजी ) भी धारण किए हुए हैं । डा. ग्रिसंन ने प्रस्तुत को अंश रूप में विद्यमान न पाकर शिव नामक किसी राजा के होने की कल्पना की है कि उसने किसी दुष्ट पुरुष की (विप रूप ) पदवृद्धि कर दी है पर उसे शांत रखने को उस पर एक सुपुरुष को नियुक्त किया है । पर यह ठीक नहीं है। इस प्रकार भी अर्थ किया जा सकता है कि कोई कटुवादी से कहता है कि शिवजी कठ में विप धारण करते हैं इसीलिए अापने भी धारण कर लिया है। घरयो इहि हेत' दो अर्थ इस प्रकार देकर प्रस्तुत को भी अंश रूप में विद्यमान प्रकट कर रहा है। प्रथम उदाहरण में 'यह' प्रस्तुत की विद्यमानता किसी प्रकार भी नहीं बतला रहा है, वह केवल चर्चा का संकेत करता है। १०१-~-जब एक प्रस्तुत के वर्णन में दूसरे प्रस्तुत पर उसका अभि- प्राय घटाया जाय । जैसे, हे अलि कोमल जाई ( चमेली ) को छोड़ कर तू ( कटीले ) केवड़े पर कहाँ गया है ? तात्पर्य यह है कि अलि को सम्बोधन कर उसके बहाने कहता है कि हे पुरुष ( कोमल जाई ) भक्ति को छोड़ कर ( कंटकाकीर्ण केवड़ा ) साँसा- रिक माया मोह में क्यों फंस गया है ? १०२-३–पर्यायोक्ति दो प्रकार की है-(१) जिसमें कोई बात साफ़ साफ़ न कहकर वचनचातुरी से घुमा फिराकर कही जाय । जैसे, वही चतुर है जिसने तुम्हारे गले में बिना डोरी की माला पहिरा दी है। नायक ने अन्य स्त्री का प्रालिंगन किया था जिससे उस स्त्री के गले की मोती की माला को छाप उसके गले और छाती पर उभड़ आई । इस भा० भू.....४ .