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( ४४ ) को हुश्रा पर दोनों का साथ होना दिखलाया गया है अतः क्रमहीन या अक्रम हुश्रा। (७) चपत्तातिशयोक्ति-जब कार्य कारण के शीघ्र पोछे हो हो । जैसे. पति के अाज ही जाने का समाचार सुनकर ( स्त्री ऐसी दुबली हो गई कि ) अंगुली की अंगूठी उसके हाथ में कड़े के समान हो गई । सुनना कारण है जिसके अनंतर ही झट दुबला होना कार्य है। (८ ) श्रत्यंतातिशयोक्ति-कार्य के अनंतर कारण दिखलाना । जैसे, शरीर तक बाण पहुँचने के पहले ही शत्रु गिर जाते हैं ७६८१--तुल्योगिता अलंकार ---कई प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत वस्तुओं का एक ही धर्म बतलाया जाय । यह तीन प्रकार का होता है। धर्म कहीं क्रिया तथा कहीं गुण के रूप में होता है । (१) जब एक ही शब्द से हित और अहित दोनों अर्थ निकले । जैस- हे गुणनिधि तू सो को तथा शत्रु को हार देता है। हार -- गले का श्राभरण ( हित ), पराजय (अहित ) । ( २ • जब कई में एक ही धर्म कहा जाय । जैसे, ( संध्या के समय ) नवोढ़ा बधू के मुख की कांति तथा कमल मुर्भा रहे हैं यहाँ मुांना या सकुचाना धर्म मुख तथा कमल दोनों में कहा गया है । ( ३ ) जब बहुत से धर्म ( गुण ) का एक साथ होना कहा जाय । जैसे, तुम्ही श्रीनिधि ( लक्ष्मीवान ), धर्मनिधि ( अत्यंत धर्मात्मा ), इंद्र के समान तेजस्वी ) और इंदु ( के समान कांतिमान ) हो । एक ही मनुष्य में चार गुणों का होना दिखलाया गया है । ८२---दीपक-- जब प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का एक धर्म हो जैसे, राजा की तेज से तथा हाथो की मद से शोभा होती है। यहाँ प्रस्तुत राजा तथा अप्रस्तुत हाथी का शोभा पाना एक धर्म है। ८२.८४-दीपकावृत्ति या श्रावृत्ति दीपक-तीन प्रकार की है