( ४१ ) ५६-६०--एक ही वस्तु का अनेक रूपों में वर्णन करने से उल्लेख अलंकार होता है । इसके दो भेद हैं -- (१) जब एक वस्तु को अनेक जन अनेक रूपों में देखें (किसी को ) अर्थी कल्पतरु, स्त्री कामदेव और शत्रु काल के समान देखते हैं । ( २ ) जब एक ही वस्तु को गुणों के अनुसार एक ही व्यक्ति कई रूपों में देखे-जैसे, तू युद्ध में अर्जुन. तेज में सूर्य और वचन-चातुरी में वृहस्पति के समान है। -स्मरण. भ्रम तथा संदेह अलंकारों के नाम ही से उनके लक्षण प्रकट हैं । इनके उदाहरण क्रमशः दिए गए हैं। (1) चंद्र को देख प्रेयसी के मुख का स्मरण होता है । ( २ ) मुख को चंद्र समझकर ये चकोर साथ लगे ( ३ ) यह (प्रेयसी का मुख है या चंद्र है या नया खिला हुआ कमल है। ६३.६८ जिसमें उपमेय का निषेध कर उपमान का स्थापन हो उसे अपह्नति कहते हैं । भाषाभूषण में ये छ प्रकार के बतलाए गए हैं । ( १ ) शुद्धापनति-किसी एक धर्म या गण को प्रारोपित कर उपमान का स्थापित किया जाना--जैसे. ये उरोज नहीं हैं गेंदा के -) गोल) (२) वाहति-जब हेतु या कारण दिया जाय--जैसे, चंद्र में तीव्रता नहीं है और रात्रि को सूर्य नहीं रहते । देखो यह बड़वानल ही है। [ स्त्री निज विरहानल से दुखित हो कहती है कि चंद्र तो तीव्र नहीं होता तब उसके प्रकाश से तरी के बदले गर्मी क्यों मालूम होती है। इसीसे वह सोचती है कि यह बड़वानल तो नहीं है। ] ( ३ ) पर्यस्ता गति--जब एक के गुण का दूसरे पर आरोप किया जाय-जैसे. यह मुख-चंद्र का प्रकाश है, चंद्रमा नहीं है । [ सुधाधर- चंद्रमा और अमृतरूपी अधर । चंद्रमा के अमृत धारण की शक्ति और प्रकाश का मुख पर धारोप किया गया है।।
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