(घ ) जब उपमान उपमेय के समान न हो -- जैसे मीन को ऐसे उत्तम नेत्रों के समान कैसे कहें ? (ङ ) जब उपमान उपमय के सामने व्यर्थ सा मालूम हो जैसे मृग ( नेत्र) ! नायिका के ) नेत्रों के आगे कुछ नहीं हैं । ५४.५७ --जहाँ उपमय में भेदरहित उपमान का अारोप हो और निषेध-वाचक शब्द न पाया हो वहाँ रूपक होता है । रूपक के पहले दो भेद हुए --तद्रप और अभेद । प्रथम में उपमेय को उपमान से भिन्न मानकर भी एक रूप तथा एक सा कार्य करनेवाला कहा जाय । द्वितीय में भिन्नता न मान कर प्रारोप किया जाय । अब प्रत्येक के अधिक, मम और न्यून के अनुसार तीन तीन भेद हुए । प्रत्येक के अलग अलग उदाहरण दिए गए (१) अधिक तद्रप-यह मुख-रूपी चंद्र उस चंद्र से ( इस बात में ) अधिक है कि इसका प्रकाश दिन रात रहता है । ( २ ) न्यून तद्रर--समुद्र से उत्पन्न न होने पर भी यह दूसरी बचमी की तरह शोभायमान है। (३) बम तद्रप--नेत्र कमल के होते अन्य कमल किस काम का है (४) अधिक प्रभेद - कनकलता-रूपी स्त्री चलती हुई अच्छी लगती है । ( चलना अधिक है ) (५) न्यून भेद-विद्म (मूंगा) रूपी अधर समुद्रोत्पन्न नहीं है ( ६ )सम अभेद--कमल रूपी मुख विमल, सरस और सुगंधयुक्त हैं । ५८ -जब उपमेय का कार्य उपमान द्वारा किया जाना अथवा दोनों का एक रूप होकर कार्य करना कहा जाय तब परिणाम अलंकार होता है। रूपक से इसमें यही भेद है कि इसमें उपमान द्वारा कार्य होना दिखला कर विशेष चत्मकार उत्पन्न किया जाता है, जो रूपक में नहीं होता। जैसे-देखो, स्त्री अपने नेत्र-कमलों से देखती है। इसमें नेत्र का काम देखना कमल द्वारा होना कहा गया है।
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