। ३५ ) २५-३१ --हाव-भ्रनेत्रादि के विकारों से संभोगेच्छा को प्रकट करने के वाह्य भाव को हाव कहते हैं । इस ग्रंथ में दस हाव गिनाए गए हैं पर अन्य ग्रंथों में इससे अधिक मिलते हैं । तीता -नायक-नायिका की काम केलि । चिकन--- ताजा के कारण कुछ बोल न सकना । घिलाम-देखने, बोलने तथा चलने में प्रेम के कारण कुछ विशेषता का आ जाना। लन्ति श्राभूषणों को अंगों पर सजाना । विच्छिति-थोड़े श्राभूषणों ही से कभी श्रृंगार करना । विभ्रष-- अति अानंद से भ्रांत हो अलंकारों को अंडबंड पहिरना । हिििनन ----क्रोध, हर्ष, भय. इच्छा अादि जब मिलकर एक हो जायें। कुपिन--- रति-क्रीड़ा का सुख लेते हुए भी दुःख प्रकट करना। बिचाक-----गुमान प्रिय के आने पर क्रोध प्रकट करना, बात न करना और न अादर करना । मेय {--यि की बात चलने पर अंगडाई और जंभाई लेना । ३२-३५--प्रेम को दो मुख्य अवस्थाएँ हैं-संभोगावस्था या संयोगा- वस्था और विरक्षावस्था या विप्रलंभावस्था । प्रथम में नायक और नायिका का मिलन और दूसरे में विच्छेद है। तिरह चार कारणों से माना गया है । ( १ ) पूर्वराग---बिना मिलन के केवल एक दूसरे का वर्णन सुनकर ही प्रेम का उदय होना । (२) मान -प्रेम-कलह । ( ३ ) प्रघसा- प्रेमिकों का दूर देश चले जाना । ( ४ ) कणा-दो में से एक की मृत्यु । इन चारों कारणों से व्युत्पन्न विरह की दश अवस्थाएँ भाषाभूषण में दी गई हैं । साहित्यदर्पण का० २१८ में केवल पूर्वरागोत्पन्न विरह की ये दश अवस्थाएँ मानी गई हैं पर अन्य में न मानने का कोई उचित कारण भी नहीं दिया गया है । भाषाभूषण में अंतिम दशा 'मृत्यु' साहित्यदर्पण के
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