( २७ ) [प्रतिषेध अलंकार] सो प्रतिषेध प्रसिद्ध जो अर्थ निषेध्या जाह। मोहन-कर मुरली नहीं, है कछु षड़ी बलाइ ॥ १६५ ॥ [विधि अलंकार ] प्रलंकार बिधि सिद्ध जो अर्थ साधिये फेर । कोकिल है कोकिल जवै ऋतु में करिहै टेर ॥ १६६ ॥ [ हेतु अलंकार] हेतु अलंकृत दाइ जब, कारन कारज संग । कारन कारज ये जबै बसत एकही अंग ॥ १६७ ॥ उदित भयो मसि मानिनी मान मिटावन मानि । मेरी रिद्धि समृद्धि यह तेरी कृपा बखानि ॥ १६८ ॥ [छेकानुप्रास अलंकार] श्रावृति बन अनेक की दाइ दाइ जब होह । है छेकानुप्रास मा ममता बिनहूँ मोइ ॥ १६६ ॥ अंजन लाग्यो है अधर प्यारे नैननि पीक । मुकुतमाल उपटी प्रगट कठिन हिये पर ठीक ॥ २०० ।। [ लाटानुप्रास अलंकार सो लाटानुप्रास जर पद की श्रावृति हाइ । शब्द अर्थ के भेद से भेद बिनाहूँ सोइ ॥ २०१ ॥ पीय निकट जाके. नहीं घाम चांदनी पाहि। पीय निकट जाके नहीं, घाम चांदनी पाहि ॥ २०२॥
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